पूरी ठाकुर की जयंती पर नेताजी मुलायम सिंह यादव 25 वर्ष बाद जब कारसेवकों पर गोलीबारी के लिए भावुक होकर दुख जताते हैं तो यह दुख यूं ही नहीं झलकता बल्कि इसके नेपत्थ्य में 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव हो सकते हैं। लोकसभा 2014 के चुनावों में अपनों से मिली सजा और भाजपा से करारी शिकस्त ने नेताजी को बेचैन कर रखा है जो जब-तब बाहर आती है। सार्वजनिक मंच से कहते हैं कि यह जनता है किनारे कर देगी। सपा कार्यकर्ताओं को नेताजी डांट लगाते हैं कि जनता के बीच में जाकर सरकार के कामकाज बताओं 2017 के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश भी आश्वस्त नहीं दिखते हैं। सपा में दूसरे नम्बर की हैसियत रखने वाले मुलायम के छोटे भाई शिवपाल प्रदेश में गठबंधन की राजनीति से इनकार नहीं करते वे बिहार की तर्ज पर यूपी में भी गठबंधन की वकालत करते हैं। यह सब यंू ही नहीं है बल्कि 2017 में सत्ता की पुन: वापसी की कोशिशे हैं। ठीक एक वर्ष बाद 2017 के यूपी विधानसभा के चुनाव हैं। प्रदेश की लगभग सभी पार्र्टियों ने चुनावी तैयारियां भी शुरू कर दी है। सूबे में रालोद और कांग्रेस जैसी पार्टियां जहां बिहार की तर्ज पर महागठबंधन के विकल्प तलाश रही ं है तो वही बसपा भाजपा और सत्ता सीन सपा खामोशी से समय का इंतजार कर रही है । लेकिन अंदर खाने सभी ने 2017 की तैयारी शुरू कर दी है। समाजवादी पार्टी अखिलेश यादव के नेतृत्व में फिर से युवा जोश के नारे के साथ मैदान में उतरेगी जिसकी झलक यूपी के वर्तमान 2016-17 के बजट में साफ दिखाई दी। अखिलेश यादव सरकार में कई अच्छी योजनाओं पर काम हुआ है लेकिन वे योजनाएं जमीनी धरातल पर अपनी छाप छोडने में असफल रही हैं। फिर भी पिछले चार वर्षों में सपा सरकार में कई ऐसे कार्य भी हुए जिन्हें अखिलेश की उपलब्धि माना जाएगा। चाहे मेट्रो हो या लखनऊ आगरा एक्सप्रेस वे या फिर स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार विकास की अनेक योजनाएं परवान चढी लेकिन प्रदेश की कानून व्यवस्था बेहतर करने में अखिलेश नाकाम साबित हुए। विपक्षी दल कानून व्यवस्था को ही मुद्दा बनाकर चुनाव में सपा सरकार को घेरेंगे । जैसा कि प्रदेश की मुख्य विपक्षी दल बसपा की सुप्रीमों मायावती ने अपने 60 वें जन्मदिन पर संकेत भी दे दिए हैं। भाजपा भी लगभग कानून व्यवस्था को ही मुद्दा बनाएगी। कानून व्यवस्था के अलावा राज्य में कृषि संकट खासकर बुंदेलखण्ड में सूखा और पश्चिमी यूपी में गन्ना किसानों की समस्याओं सम्प्रदायिक घटनाएं और सपा सरकार से मायूस विभिन्न संगठनों की समस्याएं 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के लिए घातक साबित हो सकती है। कुछ लोग तो समाकजवादी पार्टी को लडाई से ही बाहर बता रहे हैं। उन लोगों का कहना है कि अगला चुनाव बीजेपी बनाम बीएसपी होगा।
मुस्लिमों का मोहभंग बढाएगा पेरशानी
सपा का पारंपरिक वोट बैंक मुस्लिम मतदाता का पार्र्टी से मोहभंग हो रहा है मुस्लिम अब अपने आपको सपा सरकार में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। चाहे पश्चिम यूपी मुज्फफरनगर का दंगा हो या नोएडा में अखलाक की हत्या का फिर अन्य साम्प्रदायिक घटनाएं अखिलेश सरकार मुस्लिमों का ेयह संदेश देने में नाकाम रही कि वह आज भी उसके साथ मजबूती से खडी है। यही नहीं मुलायम का कपूरी ठाकुर की जयंती पर दिया गया कारसेवकों पर गोलीबारी का बयान भी मुस्लिमों में सपा के लिए अविस्वास पैदा करता है। ऐसे में मुस्लिम मत सपा से खिसकर बसपा की ओर जा सकते हैं।
‘‘मै कारसेवकों पर गोली चलवाने के लिए दुखी हूं लेकिन यह धार्मिक स्थल को बचाने के लिए जरूरी था’’ मुलायम सिंह यादव
त्रिकोणीय मुकाबले के आसार लेकिन माया आगे
अगले वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में बसपा अन्य पार्टियों एवं सपा को शिकस्त देती हुई नजर आ रही है। फिर भी मेरा मानना है कि सपा को लडाई से बाहर रखना जल्दबाजी होगी। सपा अपने विकास और विकास योजनाओं को आगे करके चुनाव में जनता के बीच जाएगी तो विपक्षी दल बसपा और भाजपा सूबे की कानून व्यवस्था और अन्य मुद्दों को अपना हथियार बनाएंगे। वहीं कांग्रेस और रालोद प्रदेश में साम्प्रदायिकता कट्टरता और किसानों की किसानों की समस्याओं के मुद्दे पर चुनाव में कूदेंगे। कुल मिला कर 2017 का विधानसभा चुनाव बहुत ही दिलचस्प होन की उम्मीद है। सूबे में मुख्य लडाई सपा भाजपा और बसपा के बीच ही दिखाई दे रही है। इन तीनों पार्टियों में बसपा सत्ता के ज्यादा करीब लग रही है उसका कारण है मायावती की छवि। भाजपा के पास यूपी के नेतृत्व के लिए कोई खास चेहरा नहीं है और अखिलेश अति विनम्र छवि के पड जाते हैं। इसमें कोई शक नही ं है कि चुनाव में सबसे बडा और मुख्य मुद् दा कानून व्यवस्था ही होगा। मायावती का बेहतर प्रशासनिक रिकार्ड और कानून व्यवस्था पर पकड उन्हें अपने विरोधियों से ऊपर कर देता हैत्र इसके अलावा पूर्व में मोहभंग हुई दलित जातियां फिर एक जुट होकर बसपा की ओर लौट रही है। ग्रामीण इलाकों में बंदूक की नोक पर गुंडाराज करने वालों से आजिज अन्य अगडी और पिछडी जातियां भी प्रदेश में नया मुख्यमंत्री चाहते हैं। मुस्जिलमों को सपा से संरक्षण की उम्मीद भी लेकिन सपा भी भगवा बिगेड से उनकी सुरक्षा करने में विफल रही। वहीं लोकसभा चुनावों में तमाम पार्टियों को अपने तिलिस्म से बौना बना देने वाली भाजपा के पास यूपी में मायावती के कद के अनुरूप चेहरे की कमी है। दूसरी ओर केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार का अभी तक का कामकाज भी कुछ खास नही ं रहा है जिसका खामियाजा भाजपा को यूपी के विधानसभा चुनावों में भुगतना पड सकता है। यूपी में भाजपा के पास रामम्ांदिर को लेकर हिन्दुओं की लामबंदी के खिलाफ कोई खास कार्ड नहीं बचा जिसके सहारे वह चुनाव लड सके। समाजवादी पार्टी को सत्ता का विरोध भी सहना पडेगा। कई अच्छी योजनाओं को भुनाने की कोशिश होगीतो कानून व्यवस्था सूखा बेरोजगारी और मुस्लिम को नजरअंदाज करना भारी पड सकता है। कुल मिलाकर मुकाबला त्रिकोणीय होने की उम्मीद है लेकिन इस मुकाबले में भी बसपा सबसे आगे रह सकती है। वही ंरालोद पश्चिमी यूपी में किसानो ंऔर जाट गुर्जरों को अपने पक्ष में कर सकता है।
हावी रहेगी आरक्षण मंदिर मुद्दा और जातिय राजनीति
बिहार चुनावों की तरह यूपी में भी आरक्षण और जाति की राजनीति चुनावों में हावी रहेगी। खासकर बसपा आरक्षण मुद्दे को अपना मुख्य हथियार बनाकर दलित जातियों को प्रमोशन में आरक्षण और अगडी जातियों के गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग कर सवणों को अपने पक्ष में करने की जुगत करेगी जिसका संकेत मायावती राज्यसभा में गरीब सवर्णों के लिए संविधान संशोधन के जरिए आरक्षण की मांग करके दे चुकी है। सपा भी लालू की तरह आरक्षण मुद्दे को भुनाने की कोशिश कर सकती है वही ंभाजपा राममंदिर मुद्दे को धार देकर तथा प्रदेश में अम्बेडकर की प्रतिमाओं के जीर्णोधार के सहारे दलित और हिन्दुओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगी।
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2012 के विधान सभा चुनावों के आंकडे
सपा: सत्तासीन बहुजन समाज पार्टी को शिकस्त दे 224 सीटें जीती और 29.15 प्रतिशत मत प्राप्त किया। 2007 के विधानसभा चुनावों में सपा की 97 सीटें थीं।
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बसपा:2007 में मिलीं 206 सीटों से सिमटकर सिर्फ 80 सीटें जीती वहीं मत प्रतिशत 36.2७ से खिसककर सिर्फ 25.91 प्रतिशत रह गया।
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भाजपा: 2007 में 51 सीटें और 23.05 प्रतिशत वोट प्राप्त किया लेकिन 2012 में 47 सीटें और मात्र 15 प्रतिशत वोट मिले।
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कांग्रेस: 2007 में सिर्फ 22 सीटैं मिली और 21.60 प्रतिशत वोट मिले जबकि 2012 में सीटे बढ़कर 28 हुर्इं लेकिन मत प्रतिशत गिरकर मात्र 11.63 रह गया।
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रालोद: 2007 में 10 विधायक जीते लेकिन 2012 में एक सीट का नुकसान सहना पड़ा , 9 विधायक जीते
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मुस्लिमों का मोहभंग बढाएगा पेरशानी
सपा का पारंपरिक वोट बैंक मुस्लिम मतदाता का पार्र्टी से मोहभंग हो रहा है मुस्लिम अब अपने आपको सपा सरकार में असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। चाहे पश्चिम यूपी मुज्फफरनगर का दंगा हो या नोएडा में अखलाक की हत्या का फिर अन्य साम्प्रदायिक घटनाएं अखिलेश सरकार मुस्लिमों का ेयह संदेश देने में नाकाम रही कि वह आज भी उसके साथ मजबूती से खडी है। यही नहीं मुलायम का कपूरी ठाकुर की जयंती पर दिया गया कारसेवकों पर गोलीबारी का बयान भी मुस्लिमों में सपा के लिए अविस्वास पैदा करता है। ऐसे में मुस्लिम मत सपा से खिसकर बसपा की ओर जा सकते हैं।
‘‘मै कारसेवकों पर गोली चलवाने के लिए दुखी हूं लेकिन यह धार्मिक स्थल को बचाने के लिए जरूरी था’’ मुलायम सिंह यादव
त्रिकोणीय मुकाबले के आसार लेकिन माया आगे
अगले वर्ष 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों में बसपा अन्य पार्टियों एवं सपा को शिकस्त देती हुई नजर आ रही है। फिर भी मेरा मानना है कि सपा को लडाई से बाहर रखना जल्दबाजी होगी। सपा अपने विकास और विकास योजनाओं को आगे करके चुनाव में जनता के बीच जाएगी तो विपक्षी दल बसपा और भाजपा सूबे की कानून व्यवस्था और अन्य मुद्दों को अपना हथियार बनाएंगे। वहीं कांग्रेस और रालोद प्रदेश में साम्प्रदायिकता कट्टरता और किसानों की किसानों की समस्याओं के मुद्दे पर चुनाव में कूदेंगे। कुल मिला कर 2017 का विधानसभा चुनाव बहुत ही दिलचस्प होन की उम्मीद है। सूबे में मुख्य लडाई सपा भाजपा और बसपा के बीच ही दिखाई दे रही है। इन तीनों पार्टियों में बसपा सत्ता के ज्यादा करीब लग रही है उसका कारण है मायावती की छवि। भाजपा के पास यूपी के नेतृत्व के लिए कोई खास चेहरा नहीं है और अखिलेश अति विनम्र छवि के पड जाते हैं। इसमें कोई शक नही ं है कि चुनाव में सबसे बडा और मुख्य मुद् दा कानून व्यवस्था ही होगा। मायावती का बेहतर प्रशासनिक रिकार्ड और कानून व्यवस्था पर पकड उन्हें अपने विरोधियों से ऊपर कर देता हैत्र इसके अलावा पूर्व में मोहभंग हुई दलित जातियां फिर एक जुट होकर बसपा की ओर लौट रही है। ग्रामीण इलाकों में बंदूक की नोक पर गुंडाराज करने वालों से आजिज अन्य अगडी और पिछडी जातियां भी प्रदेश में नया मुख्यमंत्री चाहते हैं। मुस्जिलमों को सपा से संरक्षण की उम्मीद भी लेकिन सपा भी भगवा बिगेड से उनकी सुरक्षा करने में विफल रही। वहीं लोकसभा चुनावों में तमाम पार्टियों को अपने तिलिस्म से बौना बना देने वाली भाजपा के पास यूपी में मायावती के कद के अनुरूप चेहरे की कमी है। दूसरी ओर केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार का अभी तक का कामकाज भी कुछ खास नही ं रहा है जिसका खामियाजा भाजपा को यूपी के विधानसभा चुनावों में भुगतना पड सकता है। यूपी में भाजपा के पास रामम्ांदिर को लेकर हिन्दुओं की लामबंदी के खिलाफ कोई खास कार्ड नहीं बचा जिसके सहारे वह चुनाव लड सके। समाजवादी पार्टी को सत्ता का विरोध भी सहना पडेगा। कई अच्छी योजनाओं को भुनाने की कोशिश होगीतो कानून व्यवस्था सूखा बेरोजगारी और मुस्लिम को नजरअंदाज करना भारी पड सकता है। कुल मिलाकर मुकाबला त्रिकोणीय होने की उम्मीद है लेकिन इस मुकाबले में भी बसपा सबसे आगे रह सकती है। वही ंरालोद पश्चिमी यूपी में किसानो ंऔर जाट गुर्जरों को अपने पक्ष में कर सकता है।
हावी रहेगी आरक्षण मंदिर मुद्दा और जातिय राजनीति
बिहार चुनावों की तरह यूपी में भी आरक्षण और जाति की राजनीति चुनावों में हावी रहेगी। खासकर बसपा आरक्षण मुद्दे को अपना मुख्य हथियार बनाकर दलित जातियों को प्रमोशन में आरक्षण और अगडी जातियों के गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग कर सवणों को अपने पक्ष में करने की जुगत करेगी जिसका संकेत मायावती राज्यसभा में गरीब सवर्णों के लिए संविधान संशोधन के जरिए आरक्षण की मांग करके दे चुकी है। सपा भी लालू की तरह आरक्षण मुद्दे को भुनाने की कोशिश कर सकती है वही ंभाजपा राममंदिर मुद्दे को धार देकर तथा प्रदेश में अम्बेडकर की प्रतिमाओं के जीर्णोधार के सहारे दलित और हिन्दुओं को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगी।
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2012 के विधान सभा चुनावों के आंकडे
सपा: सत्तासीन बहुजन समाज पार्टी को शिकस्त दे 224 सीटें जीती और 29.15 प्रतिशत मत प्राप्त किया। 2007 के विधानसभा चुनावों में सपा की 97 सीटें थीं।
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बसपा:2007 में मिलीं 206 सीटों से सिमटकर सिर्फ 80 सीटें जीती वहीं मत प्रतिशत 36.2७ से खिसककर सिर्फ 25.91 प्रतिशत रह गया।
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भाजपा: 2007 में 51 सीटें और 23.05 प्रतिशत वोट प्राप्त किया लेकिन 2012 में 47 सीटें और मात्र 15 प्रतिशत वोट मिले।
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कांग्रेस: 2007 में सिर्फ 22 सीटैं मिली और 21.60 प्रतिशत वोट मिले जबकि 2012 में सीटे बढ़कर 28 हुर्इं लेकिन मत प्रतिशत गिरकर मात्र 11.63 रह गया।
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रालोद: 2007 में 10 विधायक जीते लेकिन 2012 में एक सीट का नुकसान सहना पड़ा , 9 विधायक जीते
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