Thursday 22 November 2018

तुम मुखातिब हो, करीब भी हो, तुमको देखूं कि जवाब दूं


बीबीडी अकादमी में चल रही सैयद मोदी बैडमिंटन प्रतियोगिता में दिखी साइना व कश्यप की केमेस्ट्री

परवेज अहमद
लखनऊ। वेयर डिड यू स्टाप (कहां रुक गये थे तुम)? लंदन ओलंपिक की पदक विजेता साइना नेहवाल ने कार के करीब पहुंचे स्टार शटर पारुपल्ली कश्यप की ओर यह सवाल उछाला! जवाब में कश्यप ने उन्हें इस अंदाज में निहारा, मानो कहना चाहते हों-'तुम मुखातिब हो, करीब भी हो, तुमको देखूं कि तुम्हारे सवाल का जवाब दूं।' दिसंबर माह में शादी के बंधन में बंधने जा रहे स्टार शटलरों का ये अंदाज देख, समर्थकों के चेहरे खिल उठे। कुछ ने तालियां बजायीं। जिसका एहसास होते ही कश्यप ने इस अंदाज में हाथ उठाया, जिससे साइना का चेहरा उनकी हथेली की ओट में आ जाये और कैमरों के लेंस भावों को हमेशा के लिये कैद करने से वंचित हो जाएं।
बीबीडी अकादमी में चल रही सैयद मोदी बैडमिन्टन के कोर्ट नम्बर-2 में बुधवार को एकल मुकाबले में साइना ने मलेशिया की अपनी प्रतिद्वंदी कॉट कू कन को आसानी से हरा दिया। कुछ देर बाद उनके दोस्त व होने वाले जीवन साथी पारुपल्ली कश्यप थाईलैंड के तानोंगसा सेन बून्सक के खिलाफ इसी कोर्ट में उतरे। शुरूआती पांच-सात मिनट में तानोंगसा, कश्यप पर भाररी प्रतीत होने लगे। जिमनेजियम की केबल टीवी पर यह दृश्य देखते ही नेहवाल जिम छोड़कर सीधे मीडिया गैलरी में पहंचीं। वह ऐसे एंगल पर बैठी, ताकि कश्यप से उनकी निगाहें मिल सकें। पॉइंट बनने या सर्विस टूटने पर कुछ सेकेन्ड का जब भी मौका मिला, साइना ने इशारों में कश्यप कुछ बताया। संभवत: वह प्रतिद्वंदी की कमजोरी की ओर संकेत कर रही थी।  कश्यप ने आसानी से मैच जीत लिया। मगर, खास रहा दोनों की रिश्तों की गर्माहट और उनके बीच कोर्ट व आउट आफ कोर्ट की केमेस्ट्री। जिससे हर किसी ने महसूस किया। अपने-अपने मैच जीतने के बाद दोनों प्लेयर लाउंज में एक दूसरे के साथ गपशप में मशगूल रहे। बैडमिंटन एसोसिएशन के लोगों से भी मिले। कुछ खिलाड़ियों से मेल-मुलाकात का सिलसिला भी चला।
...और तकरीबन 2 बजकर 40 मिनट पर साइना नेहवाल अकादमी से होटल के लिए निकली। गेट पर आयीं । इंतजार कर रहे ढेरों लड़के- लड़कियों ने एक तस्वीर का आग्रह किया। वह एक मिनट रुकी। बोंली, सब एक साथ आओ। बैÞडमिंटन के अंखुओं के चेहरों पर रौनक फैल गयी। कुछ जमीन पर बैठ गए, कुछ करीब खड़े हो गये। फोटोग्राफरों के फ्लैश चमकने बंद हुए तो साइना वहां से हटकर कार में बैठ गयी। पांच मिनट से कुछ ज्यादा ही गुजरा होगा। साइना ने चारों ओर निगाहें दौड़ायीं। मानों किसी को खोज रही हों। फिर पीली टी-शर्ट में कार की अगली सीट पर बैठी महिला पीएस को इशारा किया। जिसे समझ कर वह फौरन कार से उतरी और सीधे वहां गयी, जहां पारुपल्ली कश्यप रुक गये थे। कहा-सी इज वेटिंग? कश्यप उसके पीछे-पीछे चल पड़े। मौजूद समर्थकों ने चहेते सितारों की मौजूदगी केपलों को मोबाइल, निगाहों में कैद करने की कोशिशें शुरू कीं।...तब तक कार का गेट खुला। लेफ्ट साइड से कश्यप कार में घुसे भी नहीं थे कि साइना ने अंग्रेजी में सवाल उछाल दिया। जिसका अर्थ था 'तुम कहां रुक गये थे ?' कश्यप कुछ बोले नहीं। साइना ने सवालिया अंदाज में अपना चेहरा उनकी ओर किया। कश्यप मुस्कुराये। जिसमें आत्मीय भाव था। बैडमिन्टन की दुनिया में मुस्तकबिल बनाने को प्रयासरत खिलाड़ी और इस खेल में दिलचस्पी रखने वाले जानते हैं, ये स्टार शटलर जल्द ही जिंदगी के नए सफर में निकलने वाले हैं। लिहाजा वे भी मुस्कुराये। कुछ सिर्फ केमेस्ट्री देखकर खिलखिला पड़े। कश्यप ने मानों इसे समझा। इशारा किया। जिसका शायद आशय था-'दूसरे के प्यार के बारे में इतना नहीं सोचा जाता...बस आप सब अपनी आंखों का सफर खत्म कर लें।'...और उनकी कार चल पड़ी।
ध्यान रहे कुछ दिन पहले साइना नेहवाल ने कहा, 'मैं 20 दिसंबर से शुरू होने वाले टूनार्मेंट में व्यस्त हो जाऊंगी। उसके बाद मुझे टोक्यो ओलंपिक्स के लिए क्वालीफायर्स में हिस्सा लेना है। मेरे पास एक तारीख बची है (16 दिसंबर) जिस दिन हम शादी कर सकते हैं।' पारुपल्ली कश्यप और सायना 2005 से पुलेला गोपीचंद से ट्रेनिंग लेते रहे हैं। दोनों ने अक्सर अपने रिश्ते को लेकर इनकार किया जबकि वो 10 सालों से एक दूसरे को डेट कर रहे हैं। हाल में साइना ने कहा था-  'हम 2007-08 से बड़े टूनार्मेंट खेलने के लिए बाहर जाने लगे। हमने साथ में टूनार्मेंट खेले, साथ ट्रेनिंग की और धीरे-धीरे एक दूसरे के खेल में दिलचस्पी लेने लगे। कॉम्पिटिशन से भा

री इस दुनिया में किसी के करीब आना मुश्किल होता है। मगर हम एक-दूसरे से बातचीत कर पाए और धीरे-धीरे करीब आये।' बैडमिंटन के कोर्ट से शादी के बंधन में बंधने वाली यह दूसरी जोड़ी होगी। नेहवाल और कश्यप से पहले ज्वाला गुट्टा और चेतन आनंद शादी के बंधन में बंधे थे। वह शादी टिक नहीं पाई। 6 साल बाद ही दोनों एक दूसरे से अलग हो गए थे।

Sunday 18 November 2018

विकल्पहीनता की ओर से मुसलमान

बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का 
जो चीरा तो इक कतरा-ए-खूँ न निकला, 

यूपी में मुस्लिम वोटरों की भूमिका सीमित हो रही है ? 2014 का लोकसभा। 2017 का चुनावी रिजल्ट, इस सवाल पर उपजे संदेह को मिटा देगा। सिर्फ साढ़े चार साल पहले सिलसिला शुरू हुआ। पहले लोकसभा में इस राज्य से मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 'शून्य' हुआ। फिर विधानसभा में संख्या न्यूनतम स्तर पर गयी। कैराना उपचुनाव में खाता खुला, मगर वह अपवाद है। 19 फीसद मुस्लिम आबादी वाले प्रदेश में राजनीति की इस करवट ने कथित सेक्युलर दलों को रणनीति में बदलाव को प्रेरित किया... अब जो दिख रहा, वह अल्पसंख्यकों को विकल्पहीनता की ओर ले जाने वाला है। अजीब सवाल प्रतीत हो सकता है, मगर ये सचाई है कि भाजपा ने मुस्लिमों को चुनावी टिकटों से वंचित कर उसे लोकतांत्रिक व्यवस्था से अछूत कर रखा है। यह उनका राजनीतिक अंदाज है। इस पर ऐतराज नहीं होना चाहिए। लेकिन जिन दलों ने दशकों तक मुस्लिम मतों (वोटों) की बदौलत हुकूमत की। अपनी पीढ़ियों का मुस्तकबिल संवारा। जिनके दांव-पेंच के चलते ही मुस्लिम वोटों की बड़ी संख्या, एकजुटता का खौफ फैला। वही सेक्युलर दल राजनीतिक बदलाव के इस दौर में मुस्लिमों केउत्पीड़न, उनके रोजगार की छीना-झपटी, नाइंसाफी के सवाल पर संघर्ष करना तो दूर, उनकी समस्या पर बात करने से भी गुरेज कर रहे हैं। आखिर क्यों ? जवाब तल्ख है। कथित सेक्युलर दलों को भी सत्ता ही चाहिए वह भी अल्पसंख्यक वोटों की बदौलत, मगर उनके लिए इंसाफ का संघर्ष शायद, नहीं । यही कारण है कि भाजपा के जनाधार से मुकाबला करने के लिए लोकसभा चुनाव से पहले महागठबंधन का प्रयास तेजी से परवान चढ़ रहा है। यह राजनीति का अचरच नहीं है। फिर भी क्या यह सचाई नहीं है कि गठबंधन होने के साथ ही मुस्लिमों के सामने मताधिकार के विकल्प सीमित हो जाएंगे? भाजपा के मुकाबले महागठबंधन का जो भी प्रत्याशी होगा, मुसलमान मतदाताओं को उसके साथ ही जाना होगा, वरना वह कहां जाएगा ? अब सवाल ये है कि क्या सेक्युलर राजनीतिक दल मुसलमानों के सामने विकल्पहीनता पैदा करने के लिए गठबंधन का दांव खेलने के प्रयास में हैं? और यह स्थिति पैदा कर देना चाहते हैं कि उनके वोट मांगने की भी जरूरत न पड़े। जब वोट नहीं मांगें तो फिर हित की बात कैसी? जैसा भाजपा व्यवहार में करती है। यह भी तल्ख सच है कि जाति के खांचे में बंटे गैरअल्पसंख्यक मतदाताओं के पास राजनीतिक, आर्थिक समीकरण साधने के तब भी विकल्प मौजूद रहेंगे। मगर, गठबंधन की स्थिति में 19 फीसद वोटरों को हक-हकूक दिलाने का वादा करने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी। सवाल हो सकता है क्यों? तो जवाब में साढेÞ चार साल की केन्द्र और डेढ़ साल की उत्तर प्रदेश सरकार के कार्य, फैसलों से आंकिये। जब भी न्याय और अन्याय के बीच की रेखा बारीक हुई, सेक्युलर दलों ने चुप्पी साध ली। कभी कांग्रेस इस वर्ग के वोटों को अपनी थाती समझती थी। मंडल-कमंडल के दौर में सपा-बसपा ने इन्हीं वोटों के बल पर नई सियासी गोलबंदी का सिलसिला शुरू किया। की तब भाजपा गोलबंदी को परखने व उसकी काट तलाशने के मोÞड में थी। ऐसे में विधानसभा में इस वर्ग की नुमाइंदगी बढऩी शुरू हुई। 1996 में 39 मुस्लिम विधायक बने। 2002 में यह संख्या-44 हुई। 2007 में यह संख्या-56 पहुंची। 2012 में रिकार्ड 68 मुस्लिम विधायक निर्वाचित हुए। मगर, 2014 लोकसभा चुनाव में सियासी चौसर कुछ इस अंदाज में बिछी कि मुस्लिम वोट बिखर गया। भाजपा ने मुसलमानों को दूर रखकर 81 बनाम 19 का जो दांव चला उससे संसद में उत्तर प्रदेश से मुस्लिमों की नुमाइंदगी शून्य हो गई। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने तीन साल पुराना नुस्खा आजमाया और यह न सिर्फ कारगर रहा। क्योंकि मुस्लिम मतों में हमेशा की तरह फिर बंटवारा हुआ। आश्चर्यजनक बात यह कि मुजफ्फरनगर समेत ढेरों दंगों के बावजूद मुसलमानों के बड़े वर्ग ने सपा के साथ रहना पसंद किया, जबकि बिखरी हुई थी। बावजूद इसके जब दौर बदला तो सपा मुसलमानों के मुद्दे पर चुप्पी साध गयी है। यह तब हुआ था, जब बसपा ने सौ मुसलमानों को टिकट देकर भारी दांव लगाया था। बात आंकड़ों की हो तो मुस्लिमों की आबादी 19.5 के करीब है। 26 जिलों की 120 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैैं जहां उनकी आबादी 20 से 35 फीसद तक है। सात संसदीय क्षेत्र सीधे उसकी जद में हैं। मगर चुनाव परिणाम ने यह साबित किया है कि यह आबादी उलट-फेर में उस अंदाज में कारगर नहीं है, जिसका शोर किया जाता रहा है। आने वाले चुनाव में भी मुस्लिम एक फैक्टर तो रहेगा मगर वह 'वोट बैैंक के रूप में पढ़ा नहीं किया जा सकेगा, गठबंधन की स्थिति में वह विकल्पहीन होगा। मुसलमानों की समस्याओं पर लंबे समय से काम कर रहे व सपा के पूर्व राष्ट्रीय सचिव राजेश दीक्षित कहते हैं कि राजनीतिक दलों को यह समझना चाहिए कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान नहीं है। वह इस देश का नागरिक है। उसके उतने ही अधिकार हैं, जितने दूसरों के हैं। ये और बात है कि अब मुसलमान भी अगड़े-पसमांदा (अगड़े-पिछड़े) के बीच बंटा है। उसके यहां भी बरेलवी, देवबंदी, हनफिया, सुन्नी, शिया, कादरिया समेत ढेरों फिरके हैं। ऐसे में खास तरह का धुव्रीकरण कर रहे दल इसका लाभ तो उठायेंगे ही। इस बात से इतर अगर समझे तो कहा जा सकता है कि
दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है 
लम्बी है गम की शाम मगर शाम ही तो है।

Sunday 4 November 2018

महिला आईएएस....राजनीतिक दलों में पहचान


लखनऊ। यूपी में 91 महिला आईएएस अफसरों में कुछ ही अपनी कार्यशैली से जनता और राजनीतिक दलों में पहचान बनाई वहीं अपने सख्त फैसलों से लोकप्रियता हासिल की। माया-मुलायम की सरकार हो या फिर अखिलेश यादव-योगी आदित्यनाथ की सरकार में महिला आईएएस अफसरों को जब भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली, उसमें सफलता के झंड़े फहराए हैं।
मालूम हो कि यूपी में आईएएस अफसरों की स्ट्रेंथ 621 है, जिसमें प्रोन्नति के 188 पद और 433 सीधी भर्ती के हैं। मौजूदा समय 2017 तक बैच में 91 महिला आईएएस अफसर हैं। जो विभिन्न पदों पर अपने दायित्वों का निर्वाहन कर रही हैं। इनमें से कुछ महिला आईएएस अफसरों के कामों की चर्चा जनता भी बखूबी जानती है। महिला आईएएस अफसरों में शालिनी प्रसाद, डा. अनिता भटनागर जैन, लीना नंदन, रेणुका कुमार, जूथिका पाटणकर, एस. राधा चौहान, मोनिका एस. गर्ग, आराधना शुक्ला, डिम्पल वर्मा, कल्पना अवस्थी, अनीता सिंह, अर्चना अग्रवाल, निवेदिता शुक्ला वर्मा, लीना जौहरी, वीना कुमारी, वी. हेकली झिमोमी, कामिनी रतन चौहन, नीना शर्मा, संयुक्ता समद्दार, धनलक्ष्मी के., अर्पण यू, मनीषा त्रिघटिया, डा. अलका टण्डन भटनागर, शारदा सिंह, कुमुदलता श्रीवास्तव, संध्या तिवारी, मिनिष्टïी एस., रितु महेश्वरी, अमृता सोनी, पिंकी जोवल, कनक त्रिपाठी, प्रीति शुक्ला, अनामिका सिंह, डा. रोशन जैकब, कंचना वर्मा, अनिता श्रीवास्तव, डा. सरिता मोहन, सेल्वा कुमारी जे, शंकुतला गौतम, शीतल वर्मा, चैत्रा. वी, एस. मथु शालिनी, किंजल सिंह, सौम्या अग्रवाल, डा. काजल, बी. चंद्रकला, भावना श्रीवास्तव, शुभ्रा सक्सेना, अदिती सिंह, माला श्रीवास्तव, संगीता सिंह, नेहा शर्मा, मोनिका रानी, संदीप कौर, दुर्गा शक्ति नागपाल, डा. आभा गुप्ता, श्रीमती श्रुति, सुधा वर्मा, नेहा प्रकाश, यशु रस्तोगी, इंदुमति, डा. विभा चहल, जसजीत कौर, चांदनी सिंह, प्रियंका चौहान, अपूर्वा दुबे, प्रियंका रंजन, आर्यका अखौरी, दीपा रंजन, दिव्या मित्तल, हर्षिता माथुर, मेधा रूपम, नेहा जैन, ईशा दुहन, सुश्री अर्चना, कृतिका ज्योत्सना,  अस्मिता लाल, सुश्री निशा, थमीम, अंसरिया ए, निधि गुप्ता वत्स, जे. रीमा, गजल भारद्वाज, अनुपूर्णा गर्ग, कविता मीता, सरनीत कौर ब्रोका, डा. अकुंर लाठर, आकांक्षा राना, अनीता यादव, एकता यादव, एम. अरून्मोली, प्रेरणा सिंह, सौम्या पाण्डेय, श्रीलक्ष्मी वी.एस. हैं।
तमाम आला अफसरों और नेताओं के मतानुसार इन महिला आईएसस अफसरों में सबसे अधिक चर्चित और प्रभावशाली व्यक्तित्व में अनीता सिंह का नाम सबसे ऊपर हैं। मुलायम और अखिलेश यादव की सरकार में सबसे अधिक महत्वपूर्ण पद पर रहीं, लेकिन न तो भ्रष्टïाचार के आरोप लगे और न ही पक्षपात के। इस वजह से महिला आईएएस अफसरों में आयरन लेडी के नाम से विख्यात हैं। डा. अनिता भटनागर जैन अपने शुरूआती कैरियर में तमाम ऐसे जनहित के कार्य किए। जिनकी मिसाल दी जाती थी। लेकिन गोरखपुर मेडिकल कालेज में बच्चों की मौत के मामले ने साख को क्षति पहुंचाई। ईमानदार और सख्त छवि के कारण रेणुका कुमार का अफसरों और नेताओं में इतनी दहशत होती है कि अपने विभाग में तैनाती न होने की सिफारिश करते हैं। सरकार किसी भी राजनीतिक दल की हो, लेकिन हर सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती का कौशल के लिए आराधना शुक्ला चर्चित हैं। कामिनी रतन चौहन, शंकुतला गौतम, मोनिका एस. गर्ग,  डिम्पल वर्मा, कल्पना अवस्थी, डा. काजल, बी. चंद्रकला, किंजल सिंह, दुर्गा शक्ति नागपाल ने बड़ी पहचान बनाई है। वरिष्ठï पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक दिलीप सिन्हा का कहना है कि यूपी की कई महिला आईएएस अफसर अपनी कार्यशैली के बल पर राष्टï्रीय स्तर पर पताका फहराया है। यूपी के मुख्य सचिव के पद तक पहुंची हैं।

Friday 2 November 2018

खूबसूरत महिला पात्र पैंडोरा


भारत की राजनीति यूनान की मिथकीय कहानी की खूबसूरत महिला पात्र पैंडोरा की तरह है जिसके हाथ में शिल्प कौशल के देवता एक बॉक्स देकर हिदायत देते हैं, इसे कभी खोलना नहीं. लेकिन जिज्ञासु पैंडोरा उस बॉक्स को खोल देती है और बॉक्स में बंद सारी बुराइयां दुनिया को प्रदूषित करने के लिए आजाद हो जाती हैं. भारत में जब भी चुनाव आता है, पैंडोरा की तरह ‘राजनीति-देवी’ घोटालों-भ्रष्टाचारों का बक्सा खोल देती हैं और लोकतंत्र का पर्व हर बार बदबू से भर जाता है. इस बुराई-बक्से का इस्तेमाल सभी करते हैं, विपक्षी दल से लेकर सत्ताधारी दल तक. लेकिन चुनाव खत्म होते ही बुराई-बक्सा अगले चुनाव के लिए ताक पर रख दिया जाता है. अभी कांग्रेस बुराई-बक्से से सत्ताधारी भाजपा का राफेल-सौदा निकाल कर चमका रही है तो भाजपा लंबे समय तक सत्ता सुख भोगती रही कांग्रेस के घोटालों की लंबी फेहरिस्त निकाल कर दिखाने में लगी है.
इसी बुराई-बक्से से उत्तर प्रदेश का पत्थर घोटाला भी सामने निकल आया है. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा के भ्रष्टाचार का बुराई-बक्सा खोल कर समाजवादी पार्टी सत्ता में आई थी. लेकिन सत्ता में आते ही समाजवादी पार्टी ने बसपा का भ्रष्टाचार दबा दिया. बाद में उसी भ्रष्टाचार की प्रणेता पार्टी बसपा से समाजवादी पार्टी ने गठबंधन रिश्ता भी बना लिया. अब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने स्मारक (पत्थर) घोटाले की जांच (स्टेटस) रिपोर्ट मांग कर भाजपा को बुराई-बक्सा खोलने का चुनावी-मौका दे दिया है. अब तक भाजपा सरकार भी इस घोटाले को लेकर मौन साधे थी, लेकिन चुनाव आया तो डराने, धमकाने और औकात दिखाने में पत्थर घोटाला अब उनके काम आने वाला है. जब देश-प्रदेश में लोकसभा चुनाव का माहौल गरमाया, तभी ऐन मौके पर मायावती-काल के स्मारक घोटाले की सीबीआई जांच के लिए किसी शशिकांत उर्फ भावेश पांडेय की तरफ से इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल हो जाती है. इस याचिका पर त्वरित सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीबी भोसले और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा उत्तर प्रदेश सरकार से इस मामले में विजिलेंस जांच की प्रगति रिपोर्ट मांग लेते हैं. याचिका पर हाईकोर्ट के रुख से सनसनी फैल गई. बसपा भी सनसना गई और उससे गठबंधन करने पर उतारू सपा भी सनसनाहट से भर गई.
सपा की सनसनाहट थोड़ी अधिक इसलिए भी है क्योंकि मायावती-काल के घोटालों की फाइल अखिलेश सरकार ने ही दबा रखी थी. कार्रवाई करने की लोकायुक्त की सिफारिश को ताक पर रख कर तत्कालीन मुख्यमंत्री बसपाई भ्रष्टाचार की गैर-वाजिब अनदेखी कर रहे थे. स्मारक घोटाले पर तत्कालीन अखिलेश सरकार की चुप्पी इस बार बड़ा कानूनी जवाब मांगेगी. हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए बड़े ही सख्त लहजे में कहा है कि स्मारक घोटाले का कोई आरोपी बचना नहीं चाहिए. घोटाले की जांच उत्तर प्रदेश सरकार की आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) और सतर्कता अधिष्ठान (विजिलेंस) कर रहा था. इस प्रकरण में एक जनवरी 2014 को ही लखनऊ के गोमतीनगर थाने में एफआईआर दर्ज कराई गई थी. तब यूपी में अखिलेश यादव की सरकार थी.
मायावती के मुख्यमंत्रित्व-काल में राजधानी लखनऊ और गौतमबुद्ध नगर (नोएडा) में अम्बेडकर स्मारकों और पार्कों के निर्माण में 14 अरब रुपए से भी अधिक का घोटाला हुआ था. तत्कालीन लोकायुक्त न्यायमूर्ति एनके मेहरोत्रा की रिपोर्ट और कार्रवाई की सिफारिश पर अखिलेश यादव सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की थी. लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने मई 2013 में ही अखिलेश सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट सौंप दी थी. स्मारक घोटाले में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा समेत 199 व्यक्ति और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के मालिकान जिम्मेदार ठहराए गए थे. आरोपियों में दो मंत्रियों, एक दर्जन विधायकों, दो वकीलों, खनन विभाग के पांच अधिकारियों, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह समेत 59 अधिकारियों और पांच महाप्रबंधकों, लखनऊ विकास प्राधिकरण के पांच अधिकारियों, 20 कंसॉर्टियम प्रमुखों, 60 व्यावसायिक प्रतिष्ठानों (फर्म्स) के मालिक और राजकीय निर्माण निगम के 35 लेखाधिकारियों के नाम शामिल हैं. आरोपियों की लिस्ट में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती या मुख्यमंत्री सचिवालय के उनके खास नौकरशाहों के नाम शामिल नहीं हैं. लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी, बाबू सिंह कुशवाहा, राजकीय निर्माण निगम के तत्कालीन प्रबंधन निदेशक (एमडी) सीपी सिंह, खनन विभाग के तत्कालीन संयुक्त निदेशक सुहैल अहमद फारूकी और 15 इंजीनियरों के खिलाफ तत्काल एफआईआर दर्ज कराकर मामले की सीबीआई से जांच कराने और घोटाले की रकम वसूलने की सिफारिश की थी. लोकायुक्त ने यह भी सिफारिश की थी कि आरोपियों की आय से अधिक पाई जाने वाली चल-अचल सम्पत्ति जब्त कर ली जाए और स्मारकों के लिए पत्थर की आपूर्ति करने वाली 60 फर्मों और 20 कंसॉर्टियम से भी वसूली की कार्रवाई की जाए. लोकायुक्त की रिपोर्ट मिलने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कार्रवाई की बात तो कही, लेकिन सीबीआई से जांच कराने की सिफारिश करने के बजाय सतर्कता अधिष्ठान को जांच सौंपी दी. मामले को घालमेल करने के इरादे से तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कार्रवाई के लिए लोकायुक्त की रिपोर्ट के कुछ हिस्से अलग कर उसे गृह विभाग को सौंप दिए. उसी रिपोर्ट के कुछ हिस्से लोक निर्माण विभाग को सौंप दिए गए और कुछ हिस्से भूतत्व और खनन विभाग के सुपुर्द कर दिए गए. यानि, गृह विभाग छोड़ कर, पत्थर घोटाले में जो विभाग शामिल थे, उन्हें ही कार्रवाई करने की अखिलेश सरकार ने जिम्मेदारी दे दी.
विडंबना है कि अखिलेश यादव सरकार ने लोकायुक्त की रिपोर्ट को क्षतविक्षत करने की गैर-कानूनी हरकत की. जबकि लोकायुक्त ने पत्थरों की खरीद में घोटाला कर सरकार को 14.10 अरब रुपए नुकसान पहुंचाने के आपराधिक-कृत्य के खिलाफ ‘क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट ऑर्डिनेंस-1944’ की धारा 3 के तहत सभी आरोपियों की सम्पत्ति कुर्क करके घोटाले की राशि वसूलने की सिफारिश की थी. लोकायुक्त ने अपनी सिफारिश में सरकार को यह भी सुझाया था कि तत्कालीन मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा से कुल धनराशि का प्रत्येक से 30 प्रतिशत, राजकीय निर्माण निगम के प्रबंध निदेशक सीपी सिंह से 15 प्रतिशत, खनन विभाग के तत्कालीन संयुक्त निदेशक सुहैल अहमद फारूकी से पांच प्रतिशत और निर्माण निगम के 15 इंजीनियरों से 15 प्रतिशत धनराशि वसूली जाए. लोकायुक्त ने यह भी सिफारिश की थी कि निर्माण निगम के लेखाधिकारियों की आय से अधिक सम्पत्ति पाए जाने पर उनसे सरकारी खजाने को पहुंचे नुकसान की शेष राशि यानि पांच प्रतिशत की वसूली की जाए. लेकिन अखिलेश सरकार इस फाइल पर ही आसन टिका कर बैठ गई.
तत्कालीन लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा द्वारा आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से कराई गई जांच में आधिकारिक तौर पर पुष्टि हुई कि पत्थर (स्मारक) घोटाले के जरिए 14.10 अरब रुपए, यानि, सवा चौदह हजार करोड़ रुपए हड़प लिए गए. स्मारकों और पार्कों के निर्माण के लिए मायावती सरकार ने कुल 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए जारी किए थे. इसमें से 41 अरब 48 करोड़ 54 लाख 80 हजार रुपए खर्च किए गए. शेष एक अरब 28 करोड़ 28 लाख 59 हजार रुपए सरकारी खजाने में वापस कर दिए गए. स्मारकों के निर्माण पर खर्च की गई कुल धनराशि का लगभग 34  प्रतिशत अधिक खर्च करके सरकार को 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हजार 200 रुपए का सीधा नुकसान पहुंचाया गया. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2007 से लेकर 2012 के बीच तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के आदेश पर लखनऊ और नोएडा में अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर कई पार्क और स्मारक बनवाए गए थे. स्मारकों और पार्कों के निर्माण कार्य में प्रमुख रूप से राजकीय निर्माण निगम, आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, लोक निर्माण विभाग, नोएडा अथॉरिटी, लखनऊ विकास प्राधिकरण और संस्कृति एवं सिंचाई विभाग को लगाया गया था.
स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगाए गए गुलाबी पत्थर मिर्जापुर की खदानों के थे. उन पत्थरों को राजस्थान (भरतपुर) भेज कर वहां कटाई (कटिंग एंड कार्विंग) कराई जाती थी. फिर जयपुर भेज कर उन पत्थरों पर नक्काशियां होती थीं. इसके बाद उन पत्थरों को ट्रकों से वापस लखनऊ और नोएडा भेजा जाता था. कागजों पर जितने ट्रक मिर्जापुर से राजस्थान गए और वहां से वापस नोएडा और लखनऊ आए, वे असलियत में उतने नहीं थे. पत्थर ढुलाई में भी सरकार का अनाप-शनाप धन हड़पा गया. भुगतान भी तय रकम से दस गुना ज्यादा मनमाने तरीके से किया जाता रहा. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा की जांच रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2007 से लेकर 2011 के बीच कुल 15 हजार 749 ट्रक पत्थर कटाई और कशीदाकारी के लिए राजस्थान भेजे गए. इनमें से मात्र 7,141 ट्रक पत्थर लखनऊ आए और 322 ट्रक नोएडा पहुंचे. बाकी के 7,286 ट्रक और उन पर लदे पत्थर कहां लापता हो गए? जबकि इनके भुगतान ऊंची कीमतों पर हो गए. घोटाले की जांच रिपोर्ट में इस तरह की अजीबोगरीब बानगियां भरी पड़ी हैं.
जांच में यह भी पाया गया था कि आठ जुलाई 2008 को बैठक कर कंसॉर्टियम बनाया गया और कंसॉर्टियम से पत्थरों की सप्लाई का अनुबंध किया गया. इस बैठक ने उत्तर प्रदेश उप खनिज (परिहार) नियमावली 1963 का सीधा-सीधा उल्लंघन किया. पत्थरों की खरीद के लिए बनी संयुक्त क्रय समिति की बैठक में सारे नियम-प्रावधान दरकिनार कर बिना टेंडर के बाजार से ऊंचे रेट पर मिर्जापुर सैंड स्टोन के ब्लॉक खरीदने और सप्लाई कराने का फैसला ले लिया गया. फैसलाकारों ने मनमानी दरें तय कर करोड़ों का घपला किया. दाम ज्यादा दिखाने के लिए पत्थरों की खरीद कहीं से हुई, कटान कहीं और हुई, पत्थरों पर नक्काशी कहीं और से कराई गई और सप्लाई कहीं और से दिखाई गई. स्मारकों और पार्कों के निर्माण में लगे योजनाकारों ने पहले यह तय किया था कि पत्थर की कटिंग और कार्विंग मिर्जापुर में ही हो और इसके लिए मिर्जापुर में ही मशीनें लगाई जाएं. लेकिन बाद में अचानक यह फैसला बदल गया. पत्थर को ट्रकों पर लाद कर राजस्थान भेजने और कटिंग-कार्विंग के बाद उसे फिर ट्रकों पर लाद कर लखनऊ और नोएडा वापस मंगाने का फैसला बड़े पैमाने पर घोटाला करने के इरादे से ही किया गया था. हजारों ट्रक माल मिर्जापुर से राजस्थान भेजे गए, लेकिन वे वापस लौटे ही नहीं. उसका भुगतान भी हो गया. यह भ्रष्टाचार की सोची-समझी रणनीति का ही परिणाम था. ईओडब्लू की जांच में ये सारी करतूतें प्रामाणिक तौर पर साबित हो चुकी हैं. आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) ने उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और सोनभद्र के पत्थर कटाई वाले क्षेत्र के साथ-साथ राजस्थान के बयाना (भरतपुर) और जयपुर को भी अपनी जांच के दायरे में रखा था. ईओडब्लू ने लखनऊ और नोएडा के उन स्थानों का भी भौतिक सत्यापन किया जहां पत्थर लगाए गए थे. रेखांकित करने वाला तथ्य यह भी है कि पत्थरों की खरीद के लिए कीमत तय करने वाली सरकार की उच्चस्तरीय संयुक्त क्रय समिति ने बाजार भाव का पता लगाए बगैर कमरे में बैठे-बैठे ही 150 रुपए प्रति घन फुट कीमत तय कर दी थी और उस पर 20 रुपए प्रति घन फुट की दर पर लदान की कीमत भी निर्धारित कर दी.
पहले खदान के पट्टाधारकों से सीधे पत्थर खरीदा जाना तय हुआ था, लेकिन अचानक यह फैसला भी बदल दिया गया. अधिकारियों ने उत्तर प्रदेश उप खनिज (परिहार) नियमावली 1963 के नियम 19 के प्रावधानों को ताक पर रख कर खनन पट्टाधारकों का एक ‘गिरोह’ बना दिया और उसे कंसॉर्टियम नाम दे दिया. पट्टाधारकों को सीधे भुगतान न देकर कंसॉर्टियम के जरिए भुगतान किया जाता था. जांच में यह तथ्य खुल कर सामने आ गया कि कंसॉर्टियम के जरिए पट्टाधारकों को 75 रुपए प्रति घन फुट की दर से पेमेंट होता था, जबकि निर्माण निगम डेढ़ सौ रुपए प्रति घन फुट की दर से सरकार से पेमेंट लेता था. स्मारक निर्माण की पूरी प्रक्रिया घनघोर अराजकता में फंसी थी. बैठकें होती थीं, निर्णय लिए जाते थे, भुगतान होता था, लेकिन ईओडब्लू ने जब जांच पड़ताल की तो बैठकों का कहीं कोई आधिकारिक ब्यौरा ही नहीं मिला. बैठकों का कोई रिकार्ड किसी सरकारी दस्तावेज में दर्ज नहीं पाया गया. भूतत्व एवं खनिकर्म महकमे के निदेशक सुहैल अहमद फारूकी के रिटायर होने के बाद भी मायावती सरकार ने उन्हें ‘पत्थर-धंधे’ में लगाए रखा. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने फारूकी को सलाहकार नियुक्त कर दिया और मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और सलाहकार सुहैल अहमद फारूकी मुख्यमंत्री की तरह ही फैसले लेते रहे. जांच में यह बात सामने आई कि निर्माणाधीन स्मारक स्थलों और पार्कों का मायावती ने कभी 'ऑन-रिकॉर्ड' निरीक्षण नहीं किया. निर्माण कार्य देखने के लिए मायावती कभी मौके पर आईं भी तो वह सरकारी दस्तावेजों पर दर्ज नहीं है. मायावती की तरफ से नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही मॉनीटरिंग करते थे और यह तथ्य सरकारी दस्तावेज पर दर्ज भी है. लोकायुक्त की रिपोर्ट पर एक जनवरी 2014 को लखनऊ के गोमतीनगर थाने में सतर्कता अधिष्ठान ने भारतीय दंड विधान की धारा 409, 120-बी, 13 (1) डी और 13 (2) भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत मामला दर्ज कराया था. लेकिन चार्जशीट आज तक दाखिल नहीं हो सकी.

निर्माण निगम के अफसरों ने यूं ही झाड़ लिए 10 करोड़
ईओडब्लू की जांच में यह तथ्य सामने आया कि निर्माण निगम ने कुल 19,17,870.609 घन फुट मिर्जापुर सैंड स्टोन 150 रुपए प्रति घन फुट की दर से खरीदा था, जिस पर 28 करोड़ 76 लाख 80 हजार 591 रुपए का भुगतान हुआ. विचित्र किन्तु सत्य यह है कि जो पत्थर 150 रुपए प्रति घन फुट की दर पर खरीदा दिखाया गया, वह महज 50 से 75 रुपए प्रति घन फुट की दर पर खरीदा गया था. लिहाजा,  19,17,870.609 घन फुट सैंड स्टोन पर अगर 50 रुपए प्रति घन फुट भी अधिक लिया गया तो चुराई गई राशि 9 करोड़ 58 लाख 93 हजार 530 रुपए होती है. इस तरह निर्माण निगम के अफसरों ने सरकार के 10 करोड़ रुपए यूं ही झाड़ लिए.

अपवित्र तौर-तरीकों से होता रहा मायावती का ‘पवित्र-कार्य’... वे मौन देखती रहीं
स्मारक घोटाला कहें या पत्थर घोटाला, इसमें हुई कानूनी औपचारिकताओं में कहीं भी तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती का जिक्र नहीं है. जैसा आपको ऊपर बताया कि इस घोटाला प्रकरण में लोकायुक्त की रिपोर्ट पर सतर्कता अधिष्ठान ने जो एफआईआर दर्ज कराई उसमें भी मायावती सरकार के दो मंत्री और एक दर्जन विधायक समेत करीब दो सौ लोग अभियुक्त बनाए गए, लेकिन मायावती को अभियुक्त नहीं बनाया गया. लोकायुक्त ने पत्थर घोटाले की विस्तृत जांच आर्थिक अपराध अनुसंधान शाखा (ईओडब्लू) से कराई थी. ईओडब्लू की पूरी जांच रिपोर्ट ‘चौथी दुनिया’ के पास है. ईओडब्लू की जांच रिपोर्ट अम्बेडकर और कांशीराम के नाम पर बने स्मारकों और पार्कों को मायावती द्वारा ‘पवित्र-कार्य’ बताए जाने पर गंभीर कटाक्ष करती है. जांच रिपोर्ट कहती है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने ‘पवित्र-कार्य’ के लिए 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए का बजट दिया लेकिन उन्हीं की सरकार के दो मंत्रियों और उनके मातहती विभागों व निगमों के अधिकारियों ने ‘पवित्र-कार्य’ के लिए खर्च हुई धनराशि का 34 प्रतिशत हिस्सा गड़प कर जाने का अपवित्र काम किया. कुल धनराशि का 34 प्रतिशत हिस्सा भ्रष्टाचार करके खा जाने के काम में मायावती सरकार के दो मंत्री नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा सीधे तौर पर लिप्त बताए गए, जिनके संरक्षण और निर्देशन में निर्माण निगम और खनन विभाग के अधिकारियों ने जमकर भ्रष्टाचार किया और सरकारी धन हड़पा.

सवा चौदह हजार करोड़ के घोटाले पर खड़ा महापुरुषों का स्मारक
भ्रष्टाचारियों ने महापुरुषों के नाम पर बन रहे स्मारकों और पार्कों को भी नहीं बख्शा. हालांकि ईओडब्लू के एक आला अधिकारी कहते हैं कि भ्रष्टाचार करने के लिए ही महापुरुषों के नाम का इस्तेमाल किया गया था. स्मारक और पार्क श्रद्धा के लिए नहीं, बल्कि सरकारी धन लूटने के लिए बनवाए गए थे. स्मारकों और पार्कों के निर्माण कार्य के लिए मायावती सरकार ने 42 अरब 76 करोड़ 83 लाख 43 हजार रुपए दिए थे. इस धनराशि में से 41 अरब 48 करोड़ 54 लाख 80 हजार रुपए खर्च किए गए. सरकारी खजाने में केवल एक अरब 28 करोड़ 28 लाख 59 हजार रुपए ही वापस जमा किए गए. यानि, कुल खर्च की गई राशि में से 14 अरब 10 करोड़ 50 लाख 63 हजार 200 रुपए हड़प लिए गए. स्मारकों के निर्माण कार्य में राजकीय निर्माण निगम के अलावा आवास एवं शहरी नियोजन विभाग, लोक निर्माण विभाग (पीडब्लूडी), संस्कृति विभाग, सिंचाई विभाग, लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) और नोएडा प्राधिकरण वगैरह शामिल थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती के तत्कालीन करीबी नसीमुद्दीन सिद्दीकी और बाबू सिंह कुशवाहा ही इन विभागों के मंत्री थे. बाबू सिंह कुशवाहा खनन विभाग के मंत्री हुआ करते थे, जबकि नसीमुद्दीन सिद्दीकी स्मारकों और पार्कों के निर्माण के ‘पवित्र-कार्य’ से सम्बद्ध अन्य सभी विभागों के मंत्री हुआ करते थे. ‘अज्ञात’ वजहों से तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती की नजरों से गिरे कुशवाहा एनआरएचएम घोटाले में जेल चले गए, लेकिन मायावती जब तक सत्ता में रहीं, नसीमुद्दीन उनकी आंखों का तारा बने रहे और आखेट करते रहे. सत्ता जाने के बाद मायावती और नसीमुद्दीन में धन के लेन-देन को लेकर ही विवाद हुआ, खूब तू-तू-मैं-मैं हुई, आरोप-प्रत्यारोप हुए और बसपा से नसीमुद्दीन का निष्कासन हुआ. मायावती अब अखिलेश के साथ हैं और नसीमुद्दीन अब अखिलेश के दोस्त राहुल के साथ हैं. प्रत्यक्ष या परोक्ष, अब भी सब साथ हैं... उन पर ‘राजनीति-देवी’ की कृपा बनी रहे.

महागठबंधन पर असर डालेगा पत्थर घोटाला
मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए पत्थर घोटाले पर मिट्टी डालने की अखिलेश यादव सरकार की कारगुजारी सपा और बसपा दोनों पर भारी पड़ने वाली है. हाईकोर्ट के तेवर को सियासी नजरिए से देखें तो यह महागठबंधन की कोशिशों पर पानी फेरेगा. मायावती दबाव में हैं, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को दुत्कार कर अजित जोगी की जनता कांग्रेस से हाथ मिलाने के मायावती के फैसले ने यह जताया कि मायावती दबाव में हैं. उन्होंने न तो मध्य प्रदेश में कांग्रेस से हाथ मिलाया और न ही राजस्थान में. राजनीतिक प्रेक्षकों का आकलन है कि उत्तर प्रदेश में भी लोकसभा चुनाव के पहले ऐसा ही होने वाला है. अखिलेश यादव के लिए भी स्मारक घोटाला परेशानी का सबब बनने वाला है. वर्ष 2012 में सत्ता पर बैठने से पहले समाजवादी पार्टी बसपाई घोटाले का पाई-पाई वसूलने का चुनावी जुमला उछाल रही थी, वही पार्टी सत्ता पाते ही स्मारक घोटाले को पचा गई. लोकायुक्त की रिपोर्ट और विजिलेंस की तरफ से दर्ज एफआईआर भी किसी कानूनी अंजाम तक नहीं पहुंच पाई. सरकारी दबाव में विजिलेंस अधिष्ठान चार्जशीट तक दाखिल नहीं कर सका.

बसपा के स्मारक घोटाले के बाद खुलेगी सपा के कुंभमेला घोटाले की फाइल!
सत्ता गलियारे के उच्च पदस्थ अधिकारी बसपाकाल के स्मारक घोटाले के बाद सपाकाल के कुंभमेला घोटाले की फाइल के खुलने की भी संभावना जताते हैं. सपा सरकार के कार्यकाल में हुए कुंभ मेला घोटाले की भी सीबीआई से जांच कराने की मांग होती रही है. महालेखाकार (कैग) की रिपोर्ट में भी कुंभ मेला घोटाले की आधिकारिक पुष्टि हो चुकी है. कुंभ मेले के कर्ताधर्ता तत्कालीन मंत्री आजम खान थे. सपा सरकार के कार्यकाल में 14 जनवरी 2013 से 10 मार्च 2013 तक इलाहाबाद के प्रयाग में महाकुंभ हुआ था. कुंभ मेले के लिए अखिलेश सरकार ने 1,152.20 करोड़ दिए थे. कुंभ मेले पर 1,017.37 करोड़ रुपए खर्च हुए. यानि, 1,34.83 करोड़ रुपए बच गए. अखिलेश सरकार ने इसमें से करीब हजार करोड़ (969.17 करोड़) रुपए का कोई हिसाब (उपयोग प्रमाण पत्र) ही नहीं दिया. अखिलेश सरकार ने कुंभ मेले के लिए मिली धनराशि में केंद्रांश और राज्यांश का घपला करके भी करोड़ों रुपए इधर-उधर कर दिए.
मायावती काल के स्मारक घोटाले के बारे में भी कैग ने इसी तरह के सवाल उठाए थे. बसपा के स्मारक निर्माण की मूल योजना 943.73 करोड़ रुपए की थी, जबकि 4558.01 करोड़ रुपए में योजना पूरी हुई. योजना में 3614.28 करोड़ रुपए की भीषण बढ़त हुई. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती द्वारा बार-बार डिजाइन में बदलाव कराने और पक्के निर्माण को बार-बार तोड़े जाने के कारण भी खर्च काफी बढ़ा. कैग ने इस पर भी सवाल उठाया था कि स्मारक स्थल पर लगाए गए पेड़ सामान्य से काफी अधिक दर पर खरीदे गए थे. इसके अलावा पर्यावरण नियमों के विपरीत 44.23 प्रतिशत भू-भाग पर पत्थर का काम किया गया था. दलितों और कमजोर वर्ग के प्रति कागजी समर्पण दिखाने वाली मायावती ने इन स्मारकों के शिलान्यास पर ही 4.25 करोड़ रुपए फूंक डाले थे. स्मारक घोटाले में अहम भूमिका निभाने वाली सरकारी निर्माण एजेंसी उत्तर प्रदेश निर्माण निगम पर मायावती सरकार की इतनी कृपादृष्टि थी कि 4558.01 करोड़ रुपए की वित्तीय स्वीकृति की औपचारिकता के पहले ही निर्माण निगम को 98.61 प्रतिशत धन आवंटित कर दिया गया था. (साभारः प्रभात रंजन दीन)

वाह कुरैशी,आह कुरैशी

काला धन सफेद (मनी लॉन्ड्रिंग) करने के धंधे का सरगना मोईन कुरैशी को मदद पहुंचाने के मामले में सीबीआई अपने एक और पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने जा रही है. अरबों रुपए का काला धन सफेद करने के मामले में फंसे मीट व्यापारी मोईन कुरैशी और सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के गहरे सम्बन्ध रहे हैं. इसी मामले में सीबीआई के एक और पूर्व निदेशक एपी सिंह के खिलाफ चार्जशीट दाखिल हो चुकी है. जांच के दायरे में सीबीआई के तत्कालीन संयुक्त निदेशक व यूपी कैडर के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी जावीद अहमद, समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान, प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली और इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट (ईडी) के ही एक आला अधिकारी राजेश्वर सिंह भी हैं, जिनके मोईन कुरैशी से जुड़े होने की पृष्ठभूमि सामने आई है. मोईन से जुड़े कांग्रेसी नेताओं की तो लंबी फेहरिस्त है. इन सबकी जांच हो रही है. पिछले दिनों ईडी के लखनऊ दफ्तर में हुई छापामारी और सहायक निदेशक एनबी सिंह की गिरफ्तारी तो बस एक शुरुआत मानी जा रही है. इस छापेमारी के जरिए सीबीआई को प्रवर्तन निदेशालय के दफ्तर में घुसने और जरूरी दस्तावेज खंगालने का मौका मिल गया. सीबीआई के सूत्र बताते हैं कि मीट व्यापारी मोईन कुरैशी की गतिविधियों के बारे में रामपुर के एसएसपी से मिली कई आधिकारिक सूचनाओं को इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट ने दबाए रखा और उसकी जांच नहीं होने दी. ईडी के पास मनी लॉन्ड्रिंग से सम्बन्धित कई शिकायतें लंबित हैं, जिनकी जांच नहीं कराई गई. मनी लॉन्ड्रिंग मामले में एक प्रमुख फोन कंपनी की संलिप्तता भी सामने आई है, जिसे ईडी के आला अधिकारी ने काफी अर्से तक दबाए रखा.
मोईन कुरैशी का मामला ऐसा है कि इसकी जितनी परतें खोलते जाएं, उतनी कहानियां सामने आती जाएंगी. सीबीआई के अधिकारी ही कहते हैं कि कुरैशी के मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला के गोरखधंधे के तार इतने फैले हैं कि दिल्ली, मुंबई, उत्तर प्रदेश, कोलकाता, कर्नाटक, सीबीआई, ईडी से लेकर इंटरपोल तक जाकर जुड़ते हैं. कुरैशी के पाकिस्तान और अन्तरराष्ट्रीय कनेक्शन तो हैं ही. यूपी के एनआरएचएम घोटाले से लेकर कर्नाटक के आईएएस अनुराग तिवारी की पिछले दिनों लखनऊ में हुई हत्या के सूत्र सब आपस में मिल रहे हैं. इस मामले की दो अलग-अलग स्तरों पर जांच चल रही है. सीबीआई अपने स्तर पर जांच कर रही है और ईडी अपने स्तर पर. हालांकि दोनों एजेंसियों में टकराव की स्थिति भी पैदा होती रहती है, लेकिन दोनों जांच एजेंसियों का आपसी टकराव फिलहाल हमारी खबर का हिस्सा नहीं है. इस पर हम कभी बाद में बात करेंगे. मीट कारोबारी और मुद्रा-धुलाई (मनी लॉन्ड्रिंग) धंधे के सरगना मोईन कुरैशी से गहरे ताल्लुकात पाए जाने के कारण सीबीआई के पूर्व निदेशक अमर प्रताप (एपी) सिंह के खिलाफ एफआईआर और चार्जशीट दाखिल हो चुकी है. अब दूसरे पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा के खिलाफ चार्जशीट दाखिल किए जाने की तैयारी है. उनके खिलाफ एफआईआर पहले ही दर्ज की जा चुकी है. उस दरम्यान सीबीआई के संयुक्त निदेशक (पॉलिसी) रहे जावीद अहमद भी जांच के दायरे में हैं, क्योंकि उनके समय में ही मोईन कुरैशी के धंधे की जांच का मसला सीबीआई के सामने आया था और पहले झटके में टाल दिया गया था. आप याद करते चलें कि सीबीआई में उनके एक्सटेंशन की केंद्र सरकार से मंजूरी मिल चुकी थी और केंद्रीय सतर्कता आयोग (सेंट्रल विजिलेंस कमीशन) जावीद अहमद के नाम को सीबीआई के अतिरिक्त निदेशक के पद के लिए हरी झंडी दिखाने ही जा रहा था कि अचानक गृह मंत्रालय ने इस पर ‘ऑब्जेक्शन’ लगा दिया और उनका नाम वापस लेकर उन्हें यूपी कैडर में वापस भेज दिया. केंद्र ने जावीद का नाम वापस लिए जाने की वजहों का खुलासा नहीं किया था.
सीबीआई ने पिछले दिनों इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के लखनऊ ऑफिस पर छापा मार कर सहायक निदेशक एनबी सिंह को गिरफ्तार किया. यह छापामारी अखबारों की सुर्खियां बनीं. खबर यही बनी कि एनआरएचएम घोटाले में एक आरोपी सुरेंद्र चौधरी से 50 लाख रुपए घूस मांगने और उसके एडवांस के बतौर चार लाख रुपए लेने के आरोप में एनबी सिंह और उनके गुर्गे सुभाष को गिरफ्तार किया गया. लेकिन इस गिरफ्तारी की जो ‘अंतरकथा’ है, वह खबर नहीं बनी और न अखबारों ने इसकी समीक्षा ही की. एनबी सिंह उसी महीने यानि जून में ही रिटायर होने वाले थे. चार लाख रुपए घूस लेने के लिए वे खुद एक स्थानीय होटल में जा रहे थे, जहां से उन्हें पकड़ा गया. रिटायरमेंट नजदीक होते हुए भी एनबी सिंह का केंद्रीय उत्पाद शुल्क विभाग में ट्रांसफर कर दिया गया था और मार्च में ही उनसे एनआरएचएम घोटाले की सारी फाइलें ले ली गई थीं, फिर भी वे ईडी के ऑफिस से बाकायदा ईडी का काम कैसे देख रहे थे? एनआरएचएम का आरोपी सुरेंद्र चौधरी जब सरकारी गवाह बन चुका है, तब उसे ईडी के अधिकारी को घूस देने की जरूरत क्या थी? फिर इस प्रायोजित घूस-प्रहसन का सूत्रधार कौन है? दरअसल पूरे मामले की पटकथा कुछ और थी और दिखाई कुछ और गई. इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के लखनऊ दफ्तर में कुछ ही अर्सा पहले सहायक निदेशक एनबी सिंह और संयुक्त निदेशक राजेश्वर सिंह के बीच हुई कहासुनी और गाली-गलौज ईडी में सार्वजनिक चर्चा का विषय रही है. दो अधिकारियों के बीच तनातनी और कलह का कारण क्या था? जांच का विषय यह है. मनी लॉन्ड्रिंग मामले की जांच में ईडी की कोताही, नोटबंदी के दरम्यान मनी लॉन्ड्रिंग की शिकायतों पर ईडी की ओर से किसी कार्रवाई का न होना, मनी लॉन्ड्रिंग धंधे में मुब्तिला एक बहुराष्ट्रीय फोन कंपनी का मामला रफा-दफा कर दिया जाना, एक बड़ी मिठाई कंपनी की मुद्रा-धुलाई के धंधे में संलिप्तता हजम कर जाना, मनी लॉन्ड्रिंग धंधे के सरगना मोईन कुरैशी के खिलाफ रामपुर के एसएसपी से मिली आधिकारिक सूचनाओं को दबा दिया जाना जैसे कई मसले हैं जो एक साथ आपस में गुंथे हुए हैं. सीबीआई अधिकारी मानते हैं कि अब ईडी में घुसने का उन्हें मौका मिल गया है, अब सारे मामले की जांच होगी. सीबीआई यह भी जांच कर रही है कि ईडी की फाइलें लखनऊ के एक पॉश क्लब में क्यों ले जाई जाती थीं और कुछ खास आला नौकरशाहों के सामने फाइलें क्यों खोली जाती थीं. इस क्लब के पदाधिकारी जेल में बंद एक कुख्यात माफिया सरगना के इशारे पर चुने और हटाए जाते हैं. उस माफिया सरगना के भी मोईन कुरैशी से अच्छे सम्बन्ध बताए गए हैं.
सीबीआई के पूर्व निदेशक रंजीत सिन्हा और मोईन कुरैशी के सम्बन्ध इतने गहरे रहे हैं कि 15 महीने में दोनों की 90 मुलाकातें आधिकारिक रिकॉर्ड में दर्ज हैं. यह तथ्य कोई छुपा हुआ मामला नहीं है. एपी सिंह से भी कुरैशी की ऐसी ही अंतरंग मुलाकातें सीबीआई और ईडी की छानबीन में रिकॉर्डेड हैं. एपी सिंह और कुरैशी की अंतरंगता इतनी थी कि सिंह के घर के बेसमेंट से कुरैशी का एक दफ्तर चलता था. एपी सिंह और कुरैशी के बीच ब्लैक-बेरी-मैसेज के आदान-प्रदान की कथा सार्वजनिक हो चुकी है. यह सीबीआई का दस्तावेजी तथ्य है. दूसरे निदेशक रंजीत सिन्हा के प्रसंग में सीबीआई के दस्तावेज बताते हैं कि मोईन कुरैशी अपनी कार (डीएल-12-सीसी-1138) से कई बार सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा से मिलने उनके घर गया. कुरैशी की पत्नी नसरीन कुरैशी भी अपनी कार (डीएल-7-सीजी-3436) से कम से कम पांच बार सिन्हा से मिलने गई. कुरैशी दम्पति की दोनों कारें उनकी कंपनी एएमक्यू फ्रोजेन फूड प्राइवेट लिमिटेड के नाम और सी-134, ग्राउंड फ्लोर, डीफेंस कॉलोनी, नई दिल्ली के पते से रजिस्टर्ड हैं. यह दोनों कारें कई बार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आवास पर भी जाती रही हैं, जिनमें मोईन और उसकी पत्नी सवार रही हैं. मोईन कुरैशी की बेटी परनिया कुरैशी की शादी कांग्रेस नेता जितिन प्रसाद के रिश्तेदार अर्जुन प्रसाद से हुई है.
बहरहाल, सीबीआई का निदेशक रहते हुए रंजीत सिन्हा ने सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज़ (सीबीडीटी) पर दबाव डाल कर मोईन कुरैशी के खिलाफ हो रही छानबीन का ब्यौरा जानने और छानबीन की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश की थी. सीबीडीटी के पास रंजीत सिन्हा का वह पत्र भी है जिसके जरिए उन्होंने छानबीन का ब्यौरा उपलब्ध कराने का औपचारिक दबाव डाला था. बाद में वित्त मंत्री बने अरुण जेटली ने सीबीडीटी को निर्देश देकर ऐसा करने से मना किया था. एपी सिंह हों या रंजीत सिन्हा, इस सिस्टम में मोईन कुरैशी के हाथ इतने अंदर तक धंसे हैं कि मनी लॉन्ड्रिंग का पूरा मसला बिना किसी नतीजे के अधर में ही टंगा रह जाएगा, इसी बात का अंदेशा है. अमेरिका के पेंसिलवानिया में अरबों रुपए की जालसाजी करने वाला जाफर नईम सादिक जब कोलकाता के रवींद्र सरणी इलाके में पकड़ा जाता है तब यह रहस्य खुलता है कि वह भी मोईन कुरैशी का ही आदमी है. इंटरपोल की नोटिस पर जाफर पकड़ा जाता है. बाद में यह रहस्य खुलता है कि जाफर नईम, दुबई के विनोद करनन और सिराज अब्दुल रज्जाक का नाम इंटरपोल की वांटेड-लिस्ट और उनकी तलाशी के लिए जारी रेड-कॉर्नर नोटिस से हटाने के लिए इंटरपोल के तत्कालीन प्रमुख रोनाल्ड के नोबल से कुरैशी ने सिफारिश की थी. नोबल ने यह आधिकारिक तौर पर स्वीकार किया है कि उसके मोईन कुरैशी परिवार और सीबीआई के तत्कालीन निदेशक एपी सिंह से नजदीकी सम्बन्ध रहे हैं. लेकिन नोबल ने इंटरपोल की लिस्ट से नाम हटाने के मसले को सिरे से खारिज कर दिया था. कुरैशी की सिफारिश को नकारने वाले इंटरपोल प्रमुख रोनाल्ड के नोबल के भाई जेम्स एल. नोबल जूनियर और भारत से फरार स्वनामधन्य ललित मोदी बिजनेस-पार्टनर हैं. अमेरिका में दोनों का विशाल साझा धंधा है. यह सीबीआई के रिकॉर्ड में है. रोनाल्ड नोबल वर्ष 2000 से 2014 तक की लंबी अवधि तक इंटरपोल के महासचिव रहे हैं.
केंद्रीय खुफिया एजेंसी काले धन की आमद-रफ्त का पूरा नेटवर्क जानने की कोशिश में लगी है. इसी क्रम में मुद्रा-धुलाई और हवाला सिंडिकेट के सरगना मोईन कुरैशी से जुड़े उन तमाम लोगों के लिंक खंगाले जा रहे हैं, जिनके कभी न कभी मोईन कुरैशी से सम्बन्ध रहे हैं या मोईन कुरैशी का धन उनके धंधे में लगा है. इनमें नेता, अफसर, व्यापारी और फिल्मकारों से लेकर माफिया सरगना तक शामिल हैं. जैसा ऊपर बताया, मोईन कुरैशी के काफी नजदीकी सम्बन्ध समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आजम खान से रहे हैं. यह सम्बन्ध इतने गहरे रहे हैं कि आजम खान की बनाई मोहम्मद अली जौहर युनिवर्सिटी के उद्घाटन के मौके पर मोईन कुरैशी चार्टर हेलीकॉप्टर से रामपुर आया था. सीबीआई गलियारे में भुनभुनाहट थी कि आजम खान की युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता दिलाने में मोईन कुरैशी ने यूपी के अल्पकालिक कार्यकारी राज्यपाल अजीज कुरैशी से सिफारिश की थी. स्वाभाविक है कि इसकी आधिकारिक पुष्टि छानबीन से ही होगी, क्योंकि इंटरपोल के महासचिव की तरह कोई यह स्वीकार तो करेगा नहीं कि मोईन कुरैशी से उनके दोस्ताना सम्बन्ध रहे हैं. यह भारतवर्ष के लोगों की खासियत है. इसी प्रसंग में याद करते चलें कि उत्तर प्रदेश के दो निवर्तमान राज्यपालों क्रमशः टीवी राजेस्वर और बीएल जोशी ने मौलाना जौहर अली युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा देने के विधेयक पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया था. जोशी के जाने के बाद और राम नाईक के राज्यपाल बन कर आने के बीच में महज एक महीने के लिए यूपी के कार्यकारी राज्यपाल बनाए गए अजीज कुरैशी ने आनन-फानन मौलाना अली जौहर युनिवर्सिटी को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता के विधेयक पर हस्ताक्षर कर दिए. कुरैशी 17 जून 2014 को यूपी आए, 17 जुलाई 2014 को जौहर विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की मान्यता दी और 21 जुलाई 2014 को वापस देहरादून चले गए.
मनी लॉन्ड्रिंग सरगना मोईन कुरैशी के साथ सम्बन्धों की बात तो प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली भी स्वीकार नहीं करेंगे. जबकि असलियत यही है कि मुजफ्फर अली की फिल्म ‘जानिसार’ में मोईन कुरैशी का पैसा लगा और मोईन की बेटी परनिया कुरैशी इस फिल्म में हिरोइन बनी. ‘जानिसार’ फिल्म के प्रोड्यूसर में मीरा अली का नाम दिखाया गया, लेकिन सब जानते हैं कि फिल्म में मोईन कुरैशी ने पैसा लगाया था. बाप मोईन कुरैशी की तरह बेटी परनिया कुरैशी को भी कानून से खेलने में मजा आता है. अमेजन इंडिया फैशन वीक-2016 के दरम्यान मीडिया के लिए निजी तौर पर कॉकटेल पार्टी (बेशकीमती शराब पीने-पिलाने की पार्टी) देकर परनिया कुरैशी चर्चा में रही. मीडिया वालों ने पहले तो खूब दारू छकी और बाद में नुक्ताचीनी की कि परनिया कुरैशी फैशन डिज़ाइन काउंसिल ऑफ इंडिया की सदस्य नहीं हैं तो फिर कॉकटेल पार्टी कैसे दी. मजा यह है कि इस कॉकटेल पार्टी का नाम परनिया ने ‘रामपुर का कोला’ रखा था. हम आप सोचेंगे वही आजम खान का रामपुर... लेकिन वो कहेंगे, नहीं, मोईन कुरैशी का रामपुर. इसके पहले भी परनिया कुरैशी इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर स्मगलिंग के आरोप में पकड़ी और करीब 40 लाख रुपए का जुर्माना लेकर छोड़ी जा चुकी हैं. मोईन के अंतरंगों और उपकृतों की लिस्ट में ऐसे और कई नाम हैं. कांग्रेसियों के नाम तो भरे पड़े हैं. सोनिया गांधी का नाम इनमें शीर्ष पर है. पूर्व केंद्रीय मंत्री जितिन प्रसाद तो मोईन कुरैशी के रिश्तेदार ही हैं. वरिष्ठ कांग्रेस नेता अहमद पटेल, कमलनाथ, आरपीएन सिंह, मोहम्मद अजहरुद्दीन जैसे कई नेता इस सूची में शुमार हैं. ये उन नेताओं के नाम हैं जो मोईन कुरैशी के घर पर नियमित उठने-बैठने वाले हैं. सोनिया के घर पर मोईन परिवार नियमित तौर पर उठता-बैठता रहा है.

साढ़े पांच सौ घंटे की रिकॉर्डिंग उजागर हो तो तूफान आ जाएगा
इन्कम टैक्स विभाग की खुफिया शाखा ने मोईन कुरैशी की विभिन्न हस्तियों से होने वाली टेलीफोनिक बातचीत टेप की. उसके बारे में आईटी इंटेलिजेंस के सूत्र थोड़ी झलक दिखाते हैं तो लगता है कि कुरैशी का मनी लॉन्ड्रिंग का साम्राज्य पूरे सरकारी सिस्टम को समानान्तर चुनौती दे रहा है. तकरीबन साढ़े पांच सौ घंटे की रिकॉर्डिंग है. आईटी के अधिकारी ही कहते हैं कि इसे देश सुन ले तो भारतीय लोकतांत्रिक सिस्टम की असलियत प्रामाणिक रूप से समझ में आ जाए.
मनी लॉन्ड्रिंग मामले में इन्कम टैक्स की इंटेलिजेंस शाखा पहले से खुफिया जांच कर रही थी. आईटी इंटेलिजेंस ने मोईन कुरैशी की विभिन्न लोगों से टेलीफोन पर होने वाली बातचीत को तकरीबन साढ़े पांच सौ घंटे सुना था और उसे रिकॉर्ड किया था. इसमें केंद्र सरकार के कई मंत्री, यूपी समेत कई राज्य सरकारों के मंत्री, विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता, सीबीआई के अधिकारी, बड़े कॉरपोरेट घरानों के अलमबरदार, कई फिल्मी हस्तियां समेत ढेर सारे महत्वपूर्ण लोग शामिल हैं. आप हैरत न करें, इनमें भाजपा के भी कई नेताओं के नाम हैं. एक वरिष्ठ भाजपा नेता की बेटी का नाम भी है और उस भाजपा नेता का भी नाम है जो मोईन कुरैशी के भाई को रामपुर से टिकट दिलाने की कोशिश कर रहा था. यह अपने आप में बहुत बड़ा रहस्योद्घाटन होगा, अगर उसे सार्वजनिक कर दिया जाए.
मनी लॉन्ड्रिंग मामले में मोईन कुरैशी के जाल में फंसने और सीबीआई के दो-दो निदेशकों के उसके साथ सम्बन्ध उजागर होने के बाद देशभर में चर्चा हुई, निंदा प्रस्ताव जारी हुए और अपने-अपने तरीके से नेताओं ने इसे खूब भुनाया. लेकिन किसी भी नेता ने सार्वजनिक तौर पर यह चर्चा नहीं की कि ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी ने केंद्र सरकार को पहले ही क्या सूचना दे दी थी. ब्रिटेन की खुफिया एजेंसी ने भारतीय खुफिया एजेंसी को आगाह करते हुए यह बता दिया था कि दुबई के एक बैंक अकाउंट से 30 करोड़ रुपए ट्रांसफर हुए हैं. अकाउंटधारी भारतीय है और यह पैसा सीबीआई के निदेशक को घूस देने के लिए भेजा गया है. केंद्र सरकार न तो उस अकाउंट को जब्त कर पाई और न अकाउंटधारी को ही पकड़ा जा सका.
सीबीआई के निदेशक के पद पर रहते हुए एपी सिंह और रंजीत सिन्हा, दोनों मोईन कुरैशी की फर्म ‘एसएम प्रोडक्शन्स’ को सीबीआई के विभागीय कार्यक्रमों के आयोजन का भी ठेका देते रहे हैं. इसे मोईन कुरैशी की दूसरी बिटिया सिल्विया कुरैशी संचालित करती थी. सीबीआई के निदेशकों के साथ मोईन कुरैशी के इंटरपोल के प्रमुख रोनाल्ड के नोबल के करीबी सम्बन्धों के बारे में आपने ऊपर जाना. साथ-साथ यह भी जानते चलें कि सीबीआई और ईडी दोनों एजेंसियों के अधिकारी फ्रांस के आर्किटेक्ट जीन लुईस डेनॉयट को मोईन कुरैशी के हवाला धंधे के सिंडिकेट से सक्रिय तौर पर जुड़ा हुआ सदस्य बताते हैं. ...केवल बताते हैं, उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाते हैं.

लखनऊ में बड़े आराम से खप जाता है काला धन
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला के धंधे के साथ-साथ नौकरशाहों के काले धन के ‘एडजस्टमेंट’ का भी सुविधाजनक स्थान रही है. स्मारक घोटाला, एनआरएचएम घोटाला, बिजली घोटाला जैसे तमाम घोटालों के धन मनी लॉन्ड्रिंग का धंधा करने वाले गिरोह के जरिए यहां से बेरोकटोक विदेश जाते रहे हैं. लखनऊ से नेपाल के रास्ते काला धन बड़े आराम और बिना किसी शोरगुल के दक्षिण एशियाई देशों तक पहुंच जाता है. केंद्र सरकार का ध्यान स्विट्जरलैंड और अन्य पश्चिमी देशों पर लगा रहता है और इधर दक्षिण एशिया के छोटे-मोटे देशों में देश का पैसा धड़ल्ले से जाता रहता है. चीन के अधीन हॉन्गकॉन्ग काले धन के निवेश का बड़ा केंद्र बन गया है. यूपी के कई नेताओं का काला धन हॉन्गकॉन्ग के अलावा थाईलैंड और मलेशिया में भी खपा हुआ है. इसकी छानबीन में खुफिया एजेंसियां कोई रुचि नहीं ले रही हैं. नेताओं की आय से अधिक सम्पत्ति की जांच इन देशों में हुए निवेश की छानबीन के बगैर पूरी नहीं हो सकती.
बहरहाल, भ्रष्ट नौकरशाह भी लखनऊ का इस्तेमाल काला धन खपाने में करते रहते हैं. कुछ अर्सा पहले अंगदिया कुरियर कंपनी के जरिए 50 लाख रुपए का बड़ा कन्साइनमेंट लखनऊ निवासी ध्रुव कुमार सिंह के नाम से आया था. इसकी भनक सीबीआई को पहले ही लग चुकी थी. यह पैसा क्रिकेट फिक्सिंग और सट्टे से जुड़े धंधेबाजों का था, जिसे रिश्वत के रूप में इन्फोर्समेंट डायरेक्टरेट के अधिकारियों को ‘ऑब्लाइज’ करने के लिए भेजा गया था. इसमें ईडी के संयुक्त निदेशक जेपी सिंह व अन्य अफसरों और उनसे जुड़े सट्टेबाज विमल अग्रवाल, सोनू जालान और कुछ अन्य का नाम आया था.

सीबीआई अफसरों को ‘पटाने’ वालों को पकड़ती क्यों नहीं सरकार!
देश का अजीब हाल है कि केंद्र सरकार सीबीआई जैसी खुफिया एजेंसियों के अधिकारियों को पूंजी-सिंडिकेटों और सरगनाओं की ओर से उपकृत किए जाने पर गुस्सा भी दिखाती है और उसे रोकती भी नहीं है. सीबीआई के अधिकारियों को ‘पटाने’ का दो तरीका इस्तेमाल में लाया जा रहा है. या तो उन्हें मोटी रकम घूस में दी जाती है, या उन्हें सेमिनार और गोष्ठियों में बुला कर आकर्षक सम्मानिकी देकर उपकृत किया जाता है. कई पूंजी संस्थानों में तो खास तौर पर सीबीआई अधिकारियों को आलीशान वेतन पर नौकरी दी जाती है. यह ऐसा प्रलोभन है कि सीबीआई अफसर अपने रिटायरमेंट के बाद के जुगाड़ में उस पूंजी संस्थान को अनैतिक मदद पहुंचाते रहते हैं. सीबीआई के अधिकारियों को आकर्षक नौकरी का प्रलोभन देने में जिंदल प्रतिष्ठान अव्वल है. जिंदल प्रतिष्ठान कोयला घोटाले में लिप्त रहा है, लिहाजा वह सीबीआई अफसरों को अधिक उदारता से अपने यहां नौकरियां देता रहा है. सीबीआई जांचों के फेल होने की वजहों का भयानक सच भी यही है.
अब हम इसे आपको तफसील से बताते हैं. इसके लिए थोड़ा फ्लैश-बैक में चलना होगा. सीबीआई के निदेशक रहे अश्वनी कुमार सीबीआई से रिटायर होने के बाद और नगालैंड का राज्यपाल बनाए जाने के पहले नवीन जिंदल के प्रतिष्ठान में नौकरी कर रहे थे. सीबीआई के कई पूर्व निदेशक और वरिष्ठ नौकरशाह जिंदल संगठन में अभी भी नौकरी कर रहे हैं. सीबीआई के निदेशकों को रिटायर होते ही जिंदल के यहां नौकरी कैसे मिल जाती है? सत्ता के गलियारे में पैठ रखने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों को जिंदल से जुड़े प्रतिष्ठानों में प्रभावशाली ओहदों पर क्यों बिठाया जाता है? जिंदल के संस्थानों से ताकतवर नौकरशाह महिमामंडित और उपकृत क्यों होते रहते हैं? उन पर केंद्र सरकार ध्यान क्यों नहीं दे रही? यह सवाल सामने है. कोयला घोटाले में जिंदल समूह की संलिप्तता और घोटाले की सीबीआई जांच से जुड़ी फाइलों की रहस्यमय गुमशुदगी के वायके को देखते हुए इन सवालों को सामने रखना और भी जरूरी हो जाता है. उद्योगपति और ताकतवर कांग्रेसी नेता नवीन जिंदल की कोयला घोटाले में भूमिका जगजाहिर है. यूपीए कालीन सत्ता से उनकी नजदीकियां और उन नजदीकियों के कारण कोयला घोटाले की लीपापोती की करतूतें आपको याद ही होंगी. घोटाले में लिप्त हस्तियों की साजिशी पहुंच कितनी गहरी होती है, यह कोयला घोटाले से जुड़ी फाइलों के गायब होने के बाद पूरे देश को पता चला था.
खैर, अब आप इस खबर के जरिए देखिए कि पर्दे के पीछे पटकथाएं कैसे लिखी जाती हैं और इसे कौन लोग लिखते हैं! कोयला घोटाले में लिप्त जिंदल समूह के जरिए केंद्र सरकार के वरिष्ठ नौकरशाहों को उपकृत कराने का सिलसिला लंबे अरसे से चल रहा है. आप तथ्यों को खंगालें तो आप पाएंगे कि सत्ता के अंतरंग जिन नौकरशाहों को केंद्र सरकार उपकृत नहीं कर पाई, उन्हें जिंदल के यहां शीर्ष पदों पर नौकरी मिल गई. ऐसा भी हुआ कि नौकरी करते हुए भी कई नौकरशाहों को जिंदल के मंच से महिमामंडित किया जाता रहा. कांग्रेस के बेहद करीबी रहे अश्वनी कुमार तब सीबीआई के निदेशक थे, जब कोयला घोटाला पूरे परवान पर था. दो साल की निर्धारित सेवा अवधि में चार महीने का विस्तार अश्वनी कुमार के सत्ता साधने के हुनर का ही प्रमाण था. अश्वनी कुमार दो अगस्त 2008 को सीबीआई के निदेशक बनाए गए थे और उन्हें दो अगस्त 2010 को रिटायर हो जाना चाहिए था, लेकिन उन्हें एक्सटेंशन दिया गया. सत्ता का ‘लक्ष्य’ पूरी होने के बाद अश्वनी कुमार नवम्बर 2010 को सीबीआई के निदेशक पद से रिटायर हुए. जैसे ही रिटायर हुए, उन्हें जिंदल समूह ने लपक लिया. जिंदल समूह ने उन्हें ओपी जिंदल ग्लोबल बिजनेस स्कूल का प्रोफेसर नियुक्त कर दिया. बाद में तत्कालीन केंद्र सरकार ने अश्वनी कुमार को नगालैंड का राज्यपाल बना दिया. कोयला घोटाला, घोटाले की लीपापोती, उसमें जिंदल की भूमिका और जिंदल समूह में सीबीआई निदेशकों की नियुक्ति के सूत्र आपस में मिलते हैं कि नहीं, इसकी पड़ताल का काम तो जांच एजेंसियों का है. हमारा दायित्व तो इसे रौशनी में लाने भर का है.
अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बनाए जाने के पीछे की अंतरकथा कम रोचक नहीं है. 17 साल से अधिक समय से सीबीआई को अपनी सेवा देते रहे खांटी ईमानदार राजस्थान कैडर के आईपीएस अधिकारी एमएल शर्मा का निदेशक बनना तय हो गया था. चयनित निदेशक को प्रधानमंत्री के साथ चाय पर आमंत्रित करने की परम्परा के तहत शर्मा को पीएमओ में बुला लिया गया था. उधर, सीबीआई कार्यालय तक इसकी सूचना पहुंच गई थी और वहां लड्डू भी बंट गए. लेकिन अचानक केंद्र सरकार ने एमएल शर्मा का नाम हटा कर हिमाचल प्रदेश के डीजीपी अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक बना दिया. जबकि शर्मा उनसे सीनियर थे. वे पीएमओ से अपमानित होकर लौट आए. शर्मा ने प्रियदर्शिनी मट्टू हत्याकांड और उपहार सिनेमा हादसा जैसे कई महत्वपूर्ण मामले निपटाए थे. लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें आखिरी वक्त पर सीबीआई का निदेशक बनने लायक नहीं समझा, क्योंकि शर्मा वह नहीं कर सकते थे जो केंद्र सरकार सीबीआई से कराना चाहती थी. अचानक एमएल शर्मा को हटा कर अश्वनी कुमार को सीबीआई का निदेशक कैसे और क्यों बनाया गया, यह देश के सामने आए बाद के घटनाक्रम ने स्पष्ट कर दिया. आरुषि हत्याकांड की लीपापोती करने और सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले में अमित शाह को घेरे में लाने में अश्वनी कुमार की ही भूमिका थी. लिहाजा, कोयला घोटाले में उनका रोल क्या रहा होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है. अश्वनी कुमार ऐसे पहले सीबीआई निदेशक हैं जो राज्यपाल बने.
सीबीआई के पूर्व निदेशक डीआर कार्तिकेयन जिंदल समूह के ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी की एकेडेमिक काउंसिल के वरिष्ठ सदस्य हैं. कार्तिकेयन 1998 में सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं. इसी तरह चार जनवरी 1999 से लेकर 30 अप्रैल 2001 तक सीबीआई के निदेशक रहे आरके राघवन भी जिंदल समूह की सेवा में हैं. राघवन ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के बोर्ड ऑफ मैनेजमेंट के वरिष्ठ सदस्य हैं. सीबीआई के जिन निदेशकों को जिंदल अपने समूह में नियुक्त नहीं कर पाया उन्हें अपने शैक्षणिक प्रतिष्ठान से महिमामंडित कराता रहा. सीबीआई के निदेशक रहे अमर प्रताप (एपी) सिंह को रिटायर होने के महज महीने डेढ़ महीने के अंदर केंद्र सरकार ने लोक सेवा आयोग का सदस्य मनोनीत कर दिया था. उधर, जिंदल समूह इनके भी महिमामंडन में पीछे नहीं था. ओपी जिंदल ग्लोबल विश्वविद्यालय के कई शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में एपी सिंह शरीक रहे. यहां तक कि राष्ट्रीय पुलिस अकादमी तक में अपनी घुसपैठ बना चुका जिंदल वहां भी सैकड़ों वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के विशेषज्ञीय प्रशिक्षण का आयोजन कराता रहता है और उसी माध्यम से शीर्ष नौकरशाही को उपकृत करता रहता है. सीबीआई के पूर्व निदेशक पीसी शर्मा के साथ भी ऐसा ही हुआ. उन्हें भी रिटायरमेंट के महीने भर के अंदर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का सदस्य बना दिया गया. जिंदल ने पीसी शर्मा को भी अपने समूह से जोड़े रखा और शैक्षणिक प्रतिष्ठानों; ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी और जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूल के जरिए उनका महिमामंडन करता रहा.
सत्ता से जुड़े रहे वरिष्ठ नौकरशाहों की जिंदल से नजदीकियां वाकई रेखांकित करने लायक हैं. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पूर्व सदस्य, भारत सरकार की नीति बनाने और उसे कार्यान्वित कराने की समिति के पूर्व निदेशक, प्रधानमंत्री, कैबिनेट सचिवालय और राष्ट्रपति तक के मीडिया एवं संचार मामलों के निदेशक रह चुके वाईएसआर मूर्ति को जिंदल ने ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी का रजिस्ट्रार बना दिया. मूर्ति न केवल विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार हैं बल्कि वे मैनेजमेंट बोर्ड और एकेडेमिक काउंसिल के भी सदस्य हैं. देश के ऊर्जा सचिव रहे राम विनय शाही और भारतीय स्टेट बैंक के चेयरमैन रहे अरुण कुमार पुरवार जिंदल स्टील्स प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर हैं. ऐसे तमाम उदाहरण हैं. जिंदल देश का अकेला ऐसा पूंजी प्रतिष्ठान है जिसने सत्ता से जुड़े शीर्ष नौकरशाहों को अपने समूह में सेवा में रखा. खास तौर पर सीबीआई के पूर्व निदेशकों को अपनी सेवा में रखने में जिंदल का कोई सानी नहीं है. जिंदल जैसे समूहों से उपकृत होने वाले सीबीआई के पूर्व निदेशकों या वरिष्ठ अधिकारियों पर किसी की निगाह नहीं जाती. यह भी तो घूस है! इस पर केंद्र सरकार कोई अंकुश क्यों नहीं लगाती? भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़ी-बड़ी बोलियां बोलने वाले सत्ताधारी नेता इन सवालों पर चुप रहते हैं.

जिनसे आतंकी लेते हैं फंड, उन्हीं से नेता लेते हैं धन
देखिए, दृश्य एकदम साफ है. मोईन कुरैशी का मनी लॉन्ड्रिंग और हवाला का धंधा बहुत बड़ा घोटाला है, लेकिन यह कोई नया थोड़े ही है! इसके पहले भी हवाला का धंधा होता रहा है. इसके पहले भी काला धन सफेद होता रहा है. उन घोटालों का क्या हुआ? कुछ नहीं हुआ. सारे मामले लीप-पोत कर बराबर कर दिए गए. कम राजनीतिक औकात वाले कुछ नेता और दलाल जेल गए. फिर सब कुछ सामान्य हो गया. नेता और नौकरशाह जिन मामलों में इन्वॉल्व रहेंगे, उसका कोई नतीजा नहीं निकलेगा. आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आतंकी संगठन जिन स्रोतों से पैसे प्राप्त करते हैं, उन्हीं स्रोतों से विभिन्न राजनीतिक दल भी धन लेते हैं. लेकिन इससे नेताओं पर कोई फर्क नहीं पड़ता. 
अब आप ही बताइये कि नब्बे के दशक के उस हवाला घोटाले का क्या हुआ, जो बड़े धमाके से उजागर हुआ था? देश से बाहर विदेशों में अरबों रुपए का काला धन भेजने की हवाला-कला से देश के आम लोगों का परिचय ही जैन हवाला डायरी केस से हुआ था. सीबीआई ने वर्ष 1991 में कई हवाला सरगनाओं के ठिकानों पर छापे मारे थे. इसी छापेमारी के क्रम में एसके जैन की डायरी बरामद हुई थी और वर्ष 1996 में यह देश-दुनिया के सामने उजागर हो गया था. थोड़ा झांकते चलते हैं जैन हवाला मामले की फाइलों में...
25 मार्च 1991 को दिल्ली पुलिस ने जमायत-ए-इस्लामी के दिल्ली मुख्यालय से कश्मीरी युवक अशफाक हुसैन लोन को गिरफ्तार किया था. अशफाक से मिले सुराग पर जामा मस्जिद इलाके से जेएनयू के छात्र शहाबुद्दीन गोरी को पकड़ा गया. अशफाक और शहाबुद्दीन दोनों हवाला के जरिए पैसा हासिल कर उसे आतंकवादी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट तक पहुंचाते थे. यह पैसा लंदन से डॉ. अय्यूब ठाकुर और दुबई से तारिक भाई भेजा करता था. यह संवेदनशील सूचना मिलने पर मामले को सीबीआई को सौंप दिया गया. सीबीआई ने जांच अपने हाथ में लेने के बाद 3 मई 1991 को विभिन्न हवाला कारोबारियों के 20 ठिकानों पर छापेमारी की. इसमें भिलाई इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन के प्रबंध निदेशक सुरेंद्र कुमार जैन के महरौली स्थित फार्म हाउस और उसके भाई जेके जैन के दफ्तर पर भी छापा पड़ा. छापे में 58 लाख रुपए से ज्यादा नकद, 10.5 लाख के इंदिरा विकास पत्र और चार किलो सोना बरामद किया गया. इसके अलावा 593 अमेरिकी डॉलर, 300 पाउंड, 27 हजार डेनमार्क की मुद्रा, 50 हजार हॉन्गकॉन्ग की मुद्रा, 300 फ्रैंक सहित 50 अलग-अलग देशों की काफी मुद्राएं बरामद की गईं. सबसे महत्वपूर्ण बरामदगी थी दो संदेहास्पद डायरियां.
एसके जैन की डायरी में तत्कालीन केंद्र सरकार के तीन कैबिनेट मंत्री सहित केंद्र के कुल सात मंत्रियों, कांग्रेस के कई बड़े नेताओं, दो राज्यपालों और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी का नाम भी शामिल था. इस लिस्ट में 55 नेता, 15 बड़े नौकरशाह और एसके जैन के 22 सहयोगियों को मिलाकर कुल 92 नामों की पहचान हुई थी. अन्य 23 लोगों की पहचान नहीं हो पाई थी. डायरी में लिखे नामों के आगे राशि-संख्या लिखी थी. इसमें लालकृष्ण आडवाणी पर 60 लाख रुपए, बलराम जाखड़ पर 83 लाख, विद्याचरण शुक्ल पर 80 लाख, कमलनाथ पर 22 लाख, माधवराव सिंधिया पर 1 करोड़, राजीव गांधी पर 2 करोड़, शरद यादव पर 5 लाख, प्रणब मुखर्जी पर 10 लाख, एआर अंतुले पर 10 लाख, चिमन भाई पटेल पर 2 करोड़, एनडी तिवारी पर 25 लाख, राजेश पायलट पर 10 लाख और मदन लाल खुराना पर 3 लाख रुपए लिखे थे. सीबीआई ने चार साल बाद मार्च 1995 में एसके जैन को गिरफ्तार किया. जैन ने अपने लिखित बयान में कहा कि उसने वर्ष 1991 में मार्च से मई महीने के बीच राजीव गांधी को चार करोड़ रुपए पहुंचाए. इसमें से दो करोड़ रुपए राजीव गांधी के निजी सचिव जॉर्ज के लिए थे. इसके अलावा दो करोड़ रुपए सीताराम केसरी को भी दिए गए, जो उस समय कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे. इसी तरह उसने नरसिम्हा राव और चंद्रास्वामी को भी साढ़े तीन करोड़ रुपए देने की बात कबूली थी. एसके जैन ने यह भी स्वीकार किया था कि इटली के हथियार डीलर क्वात्रोची के जरिए वह हवाला कारोबारी आमिर भाई के सम्पर्क में आया था. आप आश्चर्य करेंगे कि गिरफ्तारी के 20 दिन बाद ही एसके जैन को जमानत पर रिहा कर दिया गया था.
गिरोहबाजों के तार कितने लंबे रहे हैं इसका अहसास आपको इस बात से ही लग जाएगा कि जिस अशफाक और शहाबुद्दीन की निशानदेही पर इतना बड़ा मामला खुला, उन दोनों का नाम चार्जशीट से गायब कर दिया गया. एसके जैन की भी गिरफ्तारी मामला उजागर होने के चार साल बाद की गई थी. सीबीआई ने 16 जनवरी 1996 को आधी-अधूरी चार्जशीट दाखिल की. 8 अप्रैल 1997 को दिल्ली हाईकोर्ट के जज मोहम्मद शमीम ने लालकृष्ण आडवाणी और वीसी शुक्ला को बाइज्जत बरी कर दिया, धीरे-धीरे सारे नेता बेदाग निकल गए. कोर्ट ने भी जैन की डायरी को ‘बुक ऑफ़ अकाउंट’ में लेने से इन्कार कर दिया. कोर्ट ने इसे सबूत नहीं माना. सीबीआई ने भी सब कुछ ढीला छोड़ दिया. विडंबना यह है कि जैन हवाला डायरी मामले से यह खुलासा हुआ था कि विदेश से जिस फंड के द्वारा राजनीतिक दलों को पैसा भेजा गया था उसी चैनल के जरिए आंतकी संगठनों को भी फंड भेजा गया था. इस घोटाले में 115 राजनेता और कारोबारी के साथ-साथ कई नौकरशाह शामिल थे. लेकिन सब सबूत के अभाव में बचकर निकल गए.
लिहाजा, हमें यह समझ लेना जरूरी है कि उस बार की तरह इस बार भी कुछ नहीं होने वाला. हवाला या मनी लॉन्ड्रिंग के बूते ही राजनीतिक दलों का धंधा चलता है. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, आम आदमी पार्टी हो या समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी या कोई अन्य. राजनीतिक दलों पर हवाला के पैसे के लेन-देन के आरोप लगते रहे हैं और वे अपने सफेद वस्त्र से धूल झाड़ते रहे हैं. मनी लॉन्ड्रिंग मामले में करीब-करीब सारे राजनीतिक दल कमोबेश इन्वॉल्व हैं, लेकिन बताइये कौन नेता पकड़ा जाता है? आपके सामने बस एक उदाहरण है झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा का. आरोप है कि मधु कोड़ा ने हजारों करोड़ रुपए बटोरे और उसे हवाला के जरिए विदेश भेजा. लेकिन आप यह भी जानते चलें कि मधु कोड़ा बड़े नेताओं का एक कारगर मोहरा थे, जिसे सामने रख कर काला धन बाहर भेजा गया और मोहरा जेल चला गया। (प्रभात रंजन दीन की वाल से साभार)