Thursday 1 March 2018

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला

मोहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
1984 बैच के IPS कृष्ण  स्वरूप द्विवेदी, जिन्हें  Bihar का DGP(राज्य पुलिस प्रमुख) नियुक्त करने पर  खूब 'हाय-तौबा' है ! कहा जा रहा है-1998 में भागलपुर में सांप्रदायिक  उपद्रव के समय वह भागलपुर के SP थे। इस दंगे में बड़ी संख्या मुसलमान मारे गए। वहां की तत्कालीन सरकार ने जस्टिस प्रसाद कमीशन गठित किया। जिसकी रिपोर्ट में एसपी की ओर इशारा कर कहा- "His communal bias was fully demonstrated, not (only) by the manner of arresting the Muslimsbut also by not extending adequatehelp to protect them."(यह भी दावा है कि बाद के कमीशनों की रिपोर्ट इससे इतर थी)। अब द्विवेदी की बिहार के DGP पद पर ताजपोशी के बाद यह रिपोर्ट फिर सामने है। कहा जा रहा है कि 'इस नियुक्ति से मुसलमान भयभीत है।' विरोध पर सवाल उठाने की मंशा नहीं है। अलबत्ता हम उनके समर्थक हैं। मगर सवाल यह है कि भाजपा, उसके समर्थन से चलने वाली सरकार जब एेसे अधिकारी पोस्ट करती है, तब ही हंगामा क्यों ?? कथित सेकुलर सरकार में कमोवेश एेसे इल्जामों से घिरे अधिकारियों की अहम पदों पर पोस्टिंग होती है, तब खामोशी क्यों रहती है ??  क्या इस शोर के पीछे मानवीय संवेदना, बेगुनाहों के खून की हौलनाक मंजर की सिहरन नहीं, पसंदीदा विचारों वाले दल को सत्ता दिलाने की मंशा पर्दे के पीछे छिपी है। अब आप पूछना चाहेंगे कि सेकुलर सरकारों में कब-कहां  एेसी पोस्टिंग हुई ?? जवाब ढूंढने के लिए सुदूर पूर्वोत्तर की ओर निगाह दौड़ाने की जरूरत नहीं। नजीरें, उत्तर प्रदेश में ही है। 22 मई 1987 को हाशिमपुरा नरसंहार हुआ। तब मेरठ के एसएसपी रहे IPS (नाम इसलिए नहीं लिखना चाहता क्योंकि अधिकतर सेवा में नहीं हैं।

को कौन सा महत्वपूर्ण पद नहीं मिला ?? उस समय के प्रमुख, आईजीपी (ZONE),डीआइजी बाद में महत्वपूर्ण पदों पर रहे। मलियाना कांड के दौरान के डीएम, एसएसपी को क्या "सेकुलर सरकारों" ने महत्वपूर्ण ओहदे नहीं दिये ? अच्छा छोड़िए!! ये हादसा तीन दशक पुराना हो चला। मगर वर्ष-2013 में "कथित रूप से मुसलमानों" की हमदर्द सरकार थी। उस दौर में इंसानी दिल-दिमाग दहलाने वाला मुजफ्फरनगर दंगा हुआ। मरने वालों में हिन्दू-मुसलमान दोनों थे। एक दर्जन मुस्लिम युवक गायब हैं। उस समय मुजफ्फरनगर में तैनात रहे अधिकारियों में से अधिकतर (डीएम, एसएसपी भी) क्या एेसी तैनाती नहीं दी गई, जो समाज को प्रभावित करती है। तर्क हो सकता है कि "ये लोग तो कहीं दोषी नहीं थे।" मगर जहां 60 से ज्यादा बेगुनाह मार दिये जाएं, वह किसी अधिकारी को जिम्मेदारी से कैसे मुक्त किया जा सकता है। और अगर उस समय भाजपा की सरकार होती तो....??? और हां, जिस एक अधिकारी की शिथिलता से 60 से अधिक लोगों के मुजफ्फरनगर में असमय मारे जाने की बुनियाद पढ़ी। वह 2013 से अब तक शानदार कही जाने वाली तैनातियों पर हैं। कई अधिकारी तो इतने महत्वपूर्ण पद पर तैनात हुए/ हैं जिसका सपना IPS/IAS/PCS/PPS देखता है।
कहना यह है कि समाज व समरता की फिक्र करने वालों ने सेकुलर सरकारों में हुए इन अधिकारियों की तैनाती पर सवाल क्यों नहीं उठाया-मेरा सवाल सिर्फ इतना सा है। इसके पीछे क्या निहितार्थ नहीं छिपे होते ??

इन दिनों वायरल इतिहासकार राम पुनियानी के वीडियो व उनके तर्कों से इतिहास को देखें तो छत्रपति शिवाजी के मुख्य सेनापति हकीम खां थे। और अकबर के सेनापति-राजा मान सिंह। हल्दीघाटी की लड़ाई में इन्हीं दोनों सेनापतियों ने अपने राजाओं की कमान संभाली। परिणाम पर जाने की जरूरत नहीं है, मगर यह तय है कि "लड़ाई सत्ता" की थी। यह हिन्दू और इस्लाम धर्म की लड़ाई नहीं थी। एेसे ही अधिकारियों की तैनातियों के पीछे भी सत्ता हासिल करने का ही लक्ष्य होता है। बौद्धिक समाज सभी पक्षों की खामियों का सवाल उठाने के साथ समाधान सुझाए तब ही हालात बदलेंगे। याद करिए-एक बार पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई पर "राइटि्स्ट" होने का इल्जाम लगा तो उन्होने कहा- 'आइ विलीब इन डूइंग थिंग्स राइट।' (I believe in doing things right)  यह जिक्र इस आशय से कि खुद को 'राइटिस्ट' (जिसे वह राष्ट्रवादी कहते हैं)  कहने वाले इस शब्द को  मुरारजी भाई की परिभाषा में अपनाएं तो शायद बदलाव आए।

...और एजेंडा-2019
हां, यह जरूर हो सकता है कि भाजपा के समर्थन से बिहार में सरकार चल रहे नीतीश कुमार ने के.एस द्विवेदी (कृष्ण  स्वरूप द्विवेदी) को डीजीपी बनाकर 2019 में यूपी साधने की मंशा बना रखी हो। दरअसल, द्विवेदी यूपी के जालौन जिले के निवासी हैं। उनका यहां से सीधा जुड़ाव है। कानपुर में ढेरों में रिश्तेदारियां हैं। जाहिर है कि  बुंदेलखंड की राजनीति में इसका सीधा प्रभाव है। भाजपा को इसका अप्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष रूप से लाभ मिल सकता है ??? यूपी में नीतीश का न संगठन है और न जनाधार। एेसे में उनके समर्थक यूपी के कुर्मी मतदाता भी भाजपा के पक्ष में गोलबंद सकते हैं। एेसे हो यह जरूरी भी नहीं है, लेकिन राजनीति तो संकेतों से होती है। यही नहीं याद कीजिए, जिस न्यायिक अधिकारी ने बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले में सजा सुनाई, वह भी जालौन के ही रहने वाले हैं। और न्यायिक अधिकारी की ओर से यूपी कुछ अधिकारियों की कार्यशैली पर सवाल उठाया गया तो योगी सरकार ने आनन-फानन में जांच करा दी थी।
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...विपक्ष का इल्जाम
राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय प्रवक्ता मनोज झा कहते हैं -"केएस द्विवेदी का डीजीपी नियुक्त होना अपने आप में इस बात की दोबारा पुष्टि करता है कि सरकार के नीतिगत और प्रशासनिक निर्णयों में नीतीश कुमार या जदयू की भूमिका नहीं रही।" "उन्हें वह करना पड़ रहा है जो संघ मुख्यालय की इच्छा होती है। तत्कालीन एसपी के रूप में 1989 के बर्बर भागलपुर दंगों के दौरान द्विवेदी की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। उस समय की मीडिया रिपोर्ट्स देखें तो स्पष्ट होता है तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को उन्हें वहां से हटाने का निर्णय लेना पड़ा था।" दक्षिणपंथी विचारधारा से उनकी निकटता जाहिर है। इससे हाशिए के लोगों और अल्पसंख्यक समाज में डर और ख़ौफ़ की भावना जन्म लेगी ।"
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा 
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो