Wednesday 23 January 2019

भाजपा के सामने यूपी की पांच सीटें बचाने की कठिन चुनौती

मोदी लहर में भी काफी कम अंतर से भाजपा जीती थी संभल, रामपुर, बस्ती, गाजीपुर, कौशांबी सीट
परवेज अहमद
लखनऊ।  उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव बेहद दिलचस्प होने की संभावनायें बननी शुरू हो गयी हैं। 80 लोकसभा सीटों में से पांच पर जीत जहां गठबंधन (सपा, बसपा व रालोद) के लिये चुनौती होगी, वहीं पांच सीटें ऐसी भी हैं, जिसे झोली में बनाये रखना भाजपा के लिये चुनौती होगी। 2014 के चुनाव में नरेन्द्र मोदी के समर्थन की आंधी चल रही थी, उस दौर में भाजपा संभल, रामपुर, गाजीपुर, बस्ती और कौशांबी सीट पांच हजार से 30 हजार वोटों से ही जीत पायी थी, जबिक अन्य प्रत्याशियों की जीत का अंतर 90 हजार से चार लाख तक था। भाजपा के रणनीतिकारों को भी संभवत: इसका भान है, इसीलिए इन क्षेत्रों में उसने अनुसांगिक संगठनों के तजुर्बेकारों की टोली को अभी से तैनात कर दिया है।
2014 में जिस एक सीट में सबसे कम वोटों के अंतर से हारजीत हुई, वह संभल थी। यहां भाजपा के सत्यपाल सिंह ने सपा के शफीकुर्ररहमान बर्क को महज 5174 वोटों से हराया था। हार जीत का इतना कम अंतर इसलिए भी था कि इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी के रूप में अतीकुर्ररहमान चुनाव लड़ रहे थे। जिन्हें संसदीय सीट का हिस्सा चंदौसी विधानसभा क्षेत्र में ही अकेले 43217 मत मिल गये थे और वह तीसरे नम्बर पर थे। अब सपा-बसपा का गठबंधन है। सीट सपा के खाते में जाने के संकेत हैं, ऐसे में भाजपा के सामने जीत दोहराने की बड़ी चुनौती होगी। दूसरी सीट रामपुर है। जहां 23435 मतों की बढ़त के साथ डॉ.नैपाल सिंह सांसद हुए थे और दूसरे नम्बर पर सपा के नसीर अहमद खां थे। इत्तिफाक से कांग्रेस का प्रत्याशी अल्पसंख्यक वर्ग का था। रामपुर संसदीय सीट में पड़ने वाली मिलक व बिलासपुर विधानसभा सीटों से भाजपा प्रत्याशी को बढ़त हासिल हुई थी, इन दोनों क्षेत्रों में अनुसूचित जाति के मतदाताओं का औसत 15 फीसद से ऊपर है। जाहिर है जीत का दोहराव भाजपा के लिए चुनौती होगी। गाजीपुर संसदीय क्षेत्र के सांसद व रेल राज्य मंत्री मनोज कुमार सिन्हा 2014 में सिर्फ 32452 वोटों से जीत पाये थे। जबकि उनके सामने सपा की ओर से राजनीतिक गणित से अनजान सुकन्या कुशवाहा थीं। अति पिछड़ों व अल्पसंख्यकों में खासी पकड़ रखने वालेउनके पति बाबू सिंह कुशवाहा सुदूर गाजियाबाद कारागार में निरुद्ध थे। सपा के अग्रणी नेताओं में से कई सुकन्या के भितरघात में जुटे थे। सपा के पूर्व मंत्री  ओम प्रकाश सिंह की विधानसभा सीट जमानियां से उतने वोट नहीं मिल पाये थे, जितने सपा को मिलते रहे हैं। इन परिस्थितियों के बावजूद वह सिर्फ 32 हजार वोटों से हारी थीं। तीसरी सीट बस्ती है। जहां भाजपा के हरीश द्विवेदी सिर्फ 33562 वोटों से जीत हासिल कर पाये थे। जबकि वह उसी समय दो विधानसभा क्षेत्रों में पिछड़ गये थे। एक सीट पर उन्हें बसपा के राम प्रसाद चौधरी (56559) से चुनौती मिल गयी थी। यहां सपा तीसरे नम्बर पर खिसक गयी थी। भाजपा की लहर के बाद भी सपा के बृज किशोर उर्फ डिंपल  सिर्फ 33 हजार वोटों से चुनाव हारे थे। इस बार सपा-बसपा का गठबंधन है और दोनों दलों को मिले वोटों को जोड़ दिया जाये तो भाजपा को मिले मतों से तीन फीसद से अधिक हो जाता है। ऐसे में यह सीट भाजपा के लिए चुनौती है। पांचवीं सीट कौशांबी सुरक्षित है। इस सीट पर भाजपा विनोद कुमार सोनकर को सिर्फ 40 हजार वोटों से जीत हासिल हुयी थी। इस सीट पर सपा के उम्मीदवार शैलेन्द्र कुमार सिराथू, मंझनपुर और चायल विधानसभा क्षेत्र में बसपा से पिछड़ गये थे। अब दोनों दलों के बीच गठबंधन है। जाहिर है चुनौती भाजपा की ही बढ़ेगी। सूत्रों का कहना है कि इन संभावनाओं से वाकिफ भाजपा ने तजुर्बेकार कार्यकर्ताओं की टोली इन क्षेत्रों में उतार दी है। आनुसांगिक संगठन के ओहदेदारों का दल भी लगाया है। भाजपा के सामने जहां इन पांच सीटों की चुनौती है, वहां सपा-बसपा गठबंधन के लिए लखनऊ, बरेली, गाजियाबाद, वाराणसी और कानपुर संसदीय सीट जीतने की चुनौती है। अमेठी, रायबरेली में उसने प्रत्याशी ही न उतारने की घोषणा कर रखी है। ऐसे में उत्तर प्रदेश की सीट दर सीट मुकाबला दिलचस्प होने की संभावना है। राजनीतिक दांव पेंचों का तिलिस्म भी दिखने के आसार हैं।


Tuesday 22 January 2019

भाजपा विरोधी राजनीति में मुलायम की भूमिका खत्म

मुलायम के अहम फैसले

1.अयोध्या में फायरिंग: -1989 में मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने। वीपी सिंह की सरकार गिरने पर चंद्रशेखर की जनता दल (समाजवादी) के समर्थन से सत्ता बनाये रखी। उनके सीएम रहते ही 1990 में कार सेवकों पर अयोध्या में गोली चली। बाद में मुलायम ने कहा-फैसला कठिन था। उनकी मुस्लिम परस्त छवि बनी। विरोधियों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहा।
2-नया दल:  1992 में मुलायम सिंह ने जनता दल से अलग दल बनाया। 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को बहुमत दिलाने के पहले पहले वह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रही। केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे। देश की राजनीति में बेहद अहम रहे।
3-शहीद का पार्थिव शरीर पर फैसला: रक्षामंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने शहीदों का पार्थिव शरीर उनके घर  भेजने का फैसला लिया। अहेतुक राशि में बढ़ोत्तरी का निर्णय लिया। इससे पहले सिर्फ कैप, वर्दी, बैज भेजे जाते थे। जिस पर अब तक अमल हो रहा है।
4-न्यूक्लियर डील में समर्थन: मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार 2008 में अमरीका के साथ परमाणु करार को लेकर संकट में आयी तब मुलायम ने बाहर से समर्थन देकर सरकार बचाई थी।
5-अखिलेश को सीएम का फैसला: 2012 में 403 में से 226 सीटें जीतकर मुलायम ने आलोचकों का जवाब दिया। खुद सीएम बनने के स्थान पर बेटे अखिलेश यादव को ओहदा सौंपा। सपा की राजनीति के  भविष्य को नई दिशा देने की पहल की।
6-जनता परिवार का अध्यक्ष: 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिखरे जनता परिवार को एकजुट करने प्रयास हुआ। मुलायम को अध्यक्ष चुन लिया गया। मगर बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मुलायम की ओर से रामगोपाल ने इस एकजुटता के बिखरने का ऐलान किया।

देस, प्रदेश की राजनीति में 'धूमकेतु' रहे मुलायम सिंह यादव की लोकसभा-2019 में कोई  भूमिका नहीं होगी? वह मैनपुरी से सिर्फ एक प्रत्याशी होंगे? सपा-बसपा गठबंधन, कोलकाता में विपक्ष की जुटान और उसमें  भाजपा का प्रभाव 'एक्सपायरी दवा' के अंदाज में खत्म होने की घोषणा में उनकी जाहिरा भूमिका न होने से ये सवाल उठा है। यह भी कहा जा रहा है कि 'मुल्ला-मुलायम' की तंजिया उपमा पर कभी  'उफ' न करने वाले मुलायम सिंह के बगैर क्या 19 फीसद वोटों वाली आबादी गठबंधन के पाले में एकजुट हो सकेगी? राजनीति की अपनी  भाषा व समीकरण होते हैं, पर इतना तय है कि इस बार के आम चुनाव में विपक्ष, कई बार अपने दल को चौंकाने वाले फैसले लेते मुलायम सिंह दिखायी नहीं देंगे।
80 के दशक के बाद कांग्रेस को चुनौती देकर जमीन पर पांव जमाने वालों में किसान नेता चरण सिंह, वीपी सिंह (विश्वनाथ प्रताप सिंह), चन्द्रशेखर, राजनारायण, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कांशीराम और मुलायम सिंह यादव का शुमार होता है। इनमें से सिर्फ मुलायम सिंह यादव ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपने दल को अपनी रणनीति से यूपी में मकबूलियत हासिल की। यहां तक कि मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन गये। उनके राजनीतिक दांव-पेंच से केद्रीय राजनीति में हलचल मच रही। जब भी  भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की सुगबुगाहट भी हुयी, मुलायम सिंह यादव उसके केन्द्र में रहे। यहां तक की 2014 के लोकसभा चुनाव में गैर भाजपा दलों की करारी पराजय के बाद 2015 में जनता परिवार को एकजुट करने की पहल हुई, तब मुलायम सिंह यादव को ही 21 दलों का अध्यक्ष चुना गया था। अब सिर्फ तीन साल बाद पहले उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में मुलायम की जाहिरा भूमिका नही्ं दिखी। और 19 जनवरी को कोलकाता में जब विपक्षी दलों ने भाजपा को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया, तब मुलायम सिंह यादव की उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं थी। सवाल ये है कि क्या मुलायम सिंह यादव अब  देश की राजनीति में हासिये पर चले गये हैं। वह विपक्ष की रणनीति में शामिल नहीं हुए तो क्या संभावना बनने पर गैरकांग्रेसी, गैर भाजपा दल उनका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार होगा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव चरखा दांव के महारथी रहे हैं। अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी है कि राजनीति में उनका प्रभाव कम हो रहा है। वह अपने बूते उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री बने। रक्षा मंत्री बनें। बेटे को मुख्यमंत्री बनाया और गांव-कस्बों की राजनीति करने वालों को सांसद, मंत्री विधायक बना दिया है। ऐसे में अभी थोड़े इंतजार की जरूरत है।

Sunday 20 January 2019

महिला हिंसा के इस कारण के विरुद्ध कभी गठबधंन होगा?

महिला हिंसा के इस कारण के विरुद्ध कभी गठबधंन होगा?
तापमान गिर-चढ़ रहा है। कोहरा-ओला (पहाड़ अपवाद हैं) इस बार पड़ा नहीं।  लेकिन धुंआ फैला है। कहीं प्रदूषण, कहीं भ्रष्टाचार, कहीं छीजते नैतिक मूल्यों  का धुंआ है। इस सबके बीच सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा से राजनीतिक आंच की लौ निकली है। जिसका जैसा चश्मा है, उसको इस लौ का वैसा रंग व ताप दिखायी दे रहा। मगर जिन्होंने चश्मा नहीं चढ़ा रखा, उनके पास ढेरों सवाल हैं। एक-यह गठबंधन किसका है? भाजपा के खिलाफ दुहाई देकर जिन्होंने गठबंधन किया, क्या उनके पास वैचारिक थाती है? दलीय रस्सी से बंधे व्यक्तियों के सामने  यह सवाल रखिये तो वे कहेंगे-हां, बसपा अांबेडकर और सपा, डॉ.लोहिया के विचारों वाला दल है। 2019 में आंबेडकरवादी और लोहियावादी मिलकर एकात्ममानवाद की दुहाई देने वालों को धूल चटा देंगे। भाजपा को हरा देंगे। सत्ता में लौटेंगे। वक्त के साथ यह आवाज तेज होगी। लोकसभा चुनाव का परिणाम आने पर थम जाएगी।...मगर जिनके वोटों से विरोधी को धूल चटाने और खुद हकूमत करने का मंसूबा संजोये हैं, वे बेखर हैं कि इंटरनेट, शार्ट फिल्मों के रूप में परोसा जा रहा 'पोर्न' महिला हिंसा की सबसे बड़ी वजह बन गया है? सर्वे को आधार नुमाया हुई ये खबर दम क्यों तोड़ गयी। इर्द-गिर्द निगाह दौड़ाइये तो पोर्न फिल्म, चुटकुलों का कचरा बेतरतीब बिखरा दिखायी देगा। लड़कियों के साथ जबरदस्ती का वीडियो शूट कर इंटरनेट के जरिये शेयर करने की शिकायतें आम हैं। कुछ वीडियो तो प्रोफेशनल कैमरे से शूट  प्रतीत होते हैं। ऐसी हिंसक पोर्नोग्राफी बड़ी मात्रा में शेयर होती है। समाज में विकृति का रूप लेती इस समस्या से लड़ने के लिए गठबंधन क्यों हो रहा? क्या इसलिये कि इस समस्या में जाति, धर्म, संप्रदाय, अगड़ा-पिछड़ा। हमारी जाति वाला, तुम्हारी जाति वाला जैसा तड़का नहीं है। कुछ समय पहले महिलावादियों ने ऐसी समस्या पर आवाज बुलंद की थी, तब केन्द्र सरकार ने 827 पोर्न साइटोंं को बंद करने का हुक्म दिया। मगर ये साइटें बंद हुयी, इसकी पड़ताल तक नहीं  की गयी। सर्वे बताता है भारत में सबसे अधिक पोर्न साइटें देखी जाती हैं, मगर क्यों?  साधारण सा जवाब होता है-सबसे ज्यादा आबादी वाला देश है। दूसरे देशों से औसत निकालिये। हम काफी पीछे मिलेंगे। मगर नेट फिल्टरिंग फर्म आॅप्टेनेट की रिपोर्ट इस कुतर्क को खारिज करते हुए कहती है कि इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री में से 37 फीसद पोर्नग्राफी है। जिससे महिलाओं के प्रति हिंसक भाव को बढ़ावा मिलता है। यह सच है तब क्या महिला पर होने वाले जुल्म को रोके बिना  भारत को विश्व गुरु बनाने, राष्ट्रवाद जेहन में भरने की कोशिशें सकारात्मक परिणाम दे सकेंगी? कुछ अरसे में बलात्कार, मारपीट, घर से निकालने, तलाक (सभी धर्म के मानने वालों में) से जुड़ी आपराधिक वारदातों की इंट्रोगेशन रिपोर्टों से जो इशारा मिलता है, उसका सिरा कहीं न कहीं पोनग्राफी से जुड़ा होता है। नई पीढ़ी की जिज्ञासा की बात करें तो वे  पोर्न के जरिए वह कुछ जानने की जिज्ञासा पूरी करते हैं। सीखने का असफल प्रयास कर रहे हैं, तब आखिर सेक्स को स्कूलों में पढ़ाया क्यों न जाये। ताकि नैतिकता का वह आवरण तो बचा रहे, जिसे भारत वर्ष की यूएसपी कहा जाता है। मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक दोनों मानते हैं कि पोर्न अनिवार्य तौर पर हिंसक और सैडिस्ट होता है। इसलिए नई पीढ़ी पोर्न के जरिए हिंसा, परपीड़ा सीख रही है। दुर्ग्यावश  सूचना क्रांति ने विजुअल सेक्स का तथाकथित तौर पर लोकतांत्रीकरण होता जा रहा है। सेक्शुअली रिप्रेस्ड खासकर उत्तर  भारतीय समाज इसको कुंठा अभिव्यक्त करने का आसान जरिया बना रहा है। पोर्न से एक समाज कैसे डील करता है यह भी उसकी मानसिक शिक्षा को दर्शाता है। सवाल ये है कि भारतीय राजनीतिक  इस सामाजिक समस्या से संघर्ष के लिए कब गठबंधन करना पसंद करेंगे। लोकसभा का चुनाव करीब है क्या किसी दल के विजन डायूक्यमेंट, चुनावी घोषणा पत्र में महिलाओं पर हिंसा के लिए जिम्मेदार पोनग्राफी पर पूर्ण प्रतिबंध या इसको शेयर करने वालों पर सख्त कार्रवाई का कोई वायदा करेगी। क्या युवा जोश वाले दल से यह उम्मीद की जाए? क्या महिला जुल्म के खिलाफ लड़ने वाले दल से यह आशा रखनी चाहिये। क्या राष्ट्रवाद की दुहाई देने वाला दल यह वादा करेगा? या फिर आजादी के आंदोलन से उपजे राजनीतिक दल से यह उम्मीद की जाए। सवाल सामने है क्या देश को आगे बढ़ाने वाला दावा करने वाले लोग दोहरे मापदंडों से बाहर आयेंगे।

Thursday 10 January 2019

आईपीएस के बीच सोशल वार का कारण 360 डिग्री?


आईएएस बनाम आईएएस। आईपीएस बनाम आईपीएस। यूपी की नौकरशाही का ये नया रंग है। एक दूसरे के काम के तरीके पर आईएएस उलझे, मगर टकराव वन आॅन वन रहा। इस संवर्ग का प्रकरण अभी ठंडा नहीं हुआ था कि सीनियर आईपीएस अधिकारी ने अपने संवर्ग के दूसरे अधिकारी के साथ अन्याय का एक किस्सा सोशल मीडिया पर बने ब्रदर ग्रुप में साझा क्या किया-मसला व्यक्तिगत वार तक पहुंच गया। इशारों में ही सही, चरित्र पर उंगलियां उठा दी गयीं। कुछ तथ्यों का जिक्र भी हो गया। शस्त्र के रूप में बेसिर-पैर के इल्जामों का इस्तेमाल हो गया। वरिष्ठ कूदे। सुलह-सफाई। माफी, खेद का दौर चला। पुलिस प्रमुख ओपी सिंह ने वार-नसीहत ग्रुप बना ब्रदर ग्रुप छोड़ दिया। एकाध और लोग इस राह पर चले। आखिर यह सब क्यों हुआ? कहा जा रहा है कि  फील्ड, महत्वपूर्ण पोस्टिंग की महत्वाकांक्षा। तू बड़ा कि मैं भी एक मसला हो सकता है। मगर गहराई में देखें। केन्द्र सरकार का 360डिग्री फार्मूला भी एक वजह है। संभवत: इसी फार्मूले के चलते डेढ़ सालों से यूपी कॉडर का कोई अधिकारी केन्द्रीय सेवा के लिये इनपैनल्ड नहीं हुआ। इस फार्मूले में संबंधित अधिकारी के समक्षक, जूनियर के साथ आम शोहरत का आकलन होता है। इस फार्मूले के चलतेएडीजी स्तर के दो अफसर वापस लौट रहे हैं। और यूपी से बाहर कोई जाने वाला नहीं है। ऐसे में प्रोन्नतियों के मौके कम होंगे। वैकेंसी के सापेक्ष जिनकी प्रोन्नति हुई है, 2019 में उन्हें पद नहीं मिलने वाला। जाहिर है, तब तक आम चुनाव हो चुके होंगे। राजनीतिक समीकरणों में बदलाव भी संभव है। ऐसे में कथित रूप से व्यक्तिगत लॉयलटी व खास पॉलिटिकल विचारों के हामीकारों का नफा-नुकसान संभव है। ये बातें कुछ लोगोंं को पहले अधीर किये हुये हैं। सिर्फ इतना नहीं, भाजपा सरकार ने पुलिस रेंज में आईजी व जोन में एडीजी नियुुक्ति का जो फैसला लिया, उसे लागू करने में एकरूपता नहीं रही है। इसका दर्द भी है।  भाजपा के सत्तारूढ़ होने के बाद से जिलों में तैनात कई आईपीएस डीआईजी पद पर प्रोन्नत हो गये हैं। वह फील्ड में पोस्टिंग के ख्वाहिशमंद हैं। कुछ ने अपनी कार्यशैली से लॉयलटी साबित कर रखी है। पद सीमित हैं। जाहिर है, अब कौन ज्यादा लॉयल है, इसका भी आकलन होगा। पुलिस में यह धारणा है कि अधिकारी से पहले शोहरत पहुंचती है। यानि कुछ छिपा नहीं होता। सब पारदर्शी रहता है। सवाल यहीं से बढ़ता है कि ग्रुप में वार-प्रतिवार के पीछे का दूसरा कारण यह तो नहीं है। जनता भले न जानती हो पर ब्रदर ग्रुप के सदस्य तो एक दूसरे की कार्यशैली, क्षमता और ईमानदारी को जानते ही हैं। सब कुछ जानने के चलते जो निष्कर्ष निकलता है, उससे फ्रेशट्रेशन का स्तर बढ़ना स्वाभाविक है। अब सवाल ये उठता है कि आखिर इसका समाधान कैसे होगा। कौन इसकी पहल करेगा? आईपीएस अधिकारियों को नये सिरे आत्ममंथन की जरूरत है-इस सवाल का जवाब संवर्ग के अधिकारी या हुकूमत चलाने वाले ही ढूंढ सकते हैं।




खामियों से भरी है सीबीआई की एफआईआर



Wednesday 2 January 2019

नयी उम्मीदों के साथ 2019 की दस्तक



              

नयी उम्मीदों के साथ 2019 की दस्तक
परवेज अहमद
लखनऊ। नया साल-2019। उम्मीदों का वर्ष है। आम चुनाव होने हैं। लिहाजा राजनीतिक दलों की अपनी तरह की उम्मीदें हैं। केन्द्र की भाजपा सरकार सत्ता में लौटने की उम्मीदों से लबरेज है। वहीं विपक्षी (कांग्रेस, सपा, बसपा व अन्य) भाजपा को सरकार से बेदखल कर खुद सत्ता हासिल करने की उम्मीदे संजोये है। नौकरीपेशा टैक्स में राहत की उम्मीद बांधे है, किसान उपज का बेहतर मूल्य हासिल करने के ख्वाहिशमंद हैं। बेरोजगारों को मुलाजिम बनने की आस है। इससे इतर समाज का एक तबका फिक्रमंद भी है। वजह, इसी साल होने वाला लोकसभा का चुनाव है। वह उम्मीद बांधे है कि चुनाव में सियासीदानों की जुबान से ऐसे शब्द नहीं निकलेंगे, जिससे समाज में खाई पैदा हो। मर्यादा तार-तार होती हों। जातीय, धार्मिक उन्माद नहीं भड़केगा।
दरअसल, नये साल पर हम सभी को उम्मीदें होती है कि ये वर्ष काफी अच्छा साबित होगा। नई उम्मीदों, नई इच्छाओं, नई आशाओं और नई संभावनाओं का मौका है। यह कह सकते हैं कि यह साल उत्तर प्रदेश को मॉब लिंचिंग का जख्म नहीं देगा। सहारनपुर जैसा दलित-सवर्ण संघर्ष नहीं होगा। बुलंदशहर नहीं दोहराया जाएगा। लखनऊ, गोंडा, सीतापुर, उन्नाव जैसी दुष्कर्म की वारदातें नहीं होंगी। विवेक तिवारी जैसा हत्याकांड नहीं होगा। हक मांगने सड़क पर उतरे आंदोलनकारियों पर बर्बर लाठियां नहीं चलेंगी। बहराइच जैसा सांप्रदायिक तनाव नहीं होगा। पुलिस फर्जी इनकाउंटरों से दूर रहेगी। जेलें अपराधियों की ऐशगाह होने के स्थान पर सुधारगृह के असली रूप में रहेंगी। सड़कों पर चलते समय हिचकोले नहीं लगेंगे और हादसों में प्रतिभाओं का अंत नहीं होगा। नौकरशाही-जनता की सेवक बनेगी। दरअसल, लोकतंत्र में यह छोटी सी आशा तो की जा ही सकती है। सरकार, अफसर सब जनता के सेवक हों। उम्मीदें अनंत हैं। मगर यह अपेक्षा है कि मिलावटी खाद्य पदार्थो का गोखरधंधा बंद हो जाएगा। इसकी वजह वे आंकड़े हैं, जिसमें कहा गया है कि प्रदेश का 40 फीसदी नागरिक पेट के रोगों से ग्रसित है। यह मिलावटी खाद्य सामग्री से है। नया साल यह उम्मीद बंधाता है कि योगी आदित्यनाथ सरकार 'सबका साथ, सबका का विकास' के मूलमंत्र को शिद्दत से धरातल पर उतारेगी। ठंड में बच्चों को स्वेटर बंट जाएगा। सरकारी स्कूलों की तालीम का स्तर ऊंचा उठेगा। मिड-डे मील की गुणवत्ता बेहतर हो जाएगी। सरकारी अस्पतालों में चल रही मैल प्रैक्टिस रुकेगी। डॉक्टर बाजार और खास कंपनी की दवा लिखने के स्थान पर जीवन बचाने में उपयोगी दवाएं लिखेंगे। प्राइवेट अस्पतालों की फीस, आपरेशन की फीस नियंत्रित करने के लिए सरकार नीति लायेगी। प्रदेश पोलियो की तरह टीबी व कुष्ठ मुक्त हो जाएगा। चुनाव हिंसा, सांप्रदायिक तनाव से मुक्त होगा। अगर उन उम्मीदों को पर लग गये तो 22 करोड़ जनता गर्व से उड़ान भर सकेगी। यह कह भी सकेगी कि हां-मुबारक था, मुबारक है हमें-2019। गद्दीनशीनों तुम्हें भी मुबारक हो राजनीति में सफलता की नई मंजिलें।

Tuesday 1 January 2019

दुधारी तलवार है उम्र सीमा घटाने की पहल


स्ट्रेटजी फॉर न्यू इंडिया @75 ! यानी युवतर भारत की रणनीति। यह एक सोच है। जिसमें सिविल सर्विसेज (आईएएस से लेकर 50 तरह की सेवा) कम्पटीशन के लिये सामान्य वर्ग की अपर एज लिमिट 27 साल, पिछड़े वर्ग की 30 साल करने का प्रस्ताव है। दो साल के अंदर इसे लागू करने का सुझाव है। यह बात ऐसे समय में उठी है, जब लोकसभा का चुनाव सामने है। हंगामा होना था, हुआ भी। दबाव बढ़ा। कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने ट्वीट किया-'सिविल सेवा परीक्षा की आयु में बदलाव पर सरकार ने कदम नहीं उठाया है।'  यहीं से नया सवाल उठता है कि नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफर्मिंग इंडिया (नीति आयोग) ने आखिर ऐसा सुझाव क्यों दिया? फिर सरकार ने कदम न उठाने की अचानक घोषणा की क्यों? ये प्रशासनिक सुधार की पहल से ज्यादा राजनीतिक लाभ-हानि से जुड़ा मसला है। उम्र न घटाने का ऐलान कर सरकार रोजगार के लिए सिर धुन रहे नौजवानों की सहानुभूति चाहती है? सामाजिक व्यवस्था की निगाह से परखें तो यह तल्ख सचाई है कि नौकरियों, प्रतियोगी परीक्षाओं में त्रिस्तरीय आरक्षण ने सवर्ण नौजवानों के अवसर कम किये हैं। यह भी हकीकत है कि उत्तर भारत के सुदूर गांवों  में नौजवान सिविल सर्विसेज एक्जाम को आईएएस का एक्जाम कहते व समझते हैं? ऐसी शैक्षिक पृष्ठभूमि का छात्र जब शहरों, बड़े कस्बों की कोचिंग या शिक्षकों से आईएएस और सिविल सर्विसेज एक्जाम का अंतर समझता है, तब तक उम्र का 25वां पड़ाव पार कर चुका होता है। ऐसे में सवर्णों के लिये 27 साल वाली सीमा उनके ख्वाब को बालू की रेत की तरह बिखेरेगी। चुनावी साल के चलते सरकार ने नीति आयोग के उम्र सीमा वाले सुझाव को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाले रखा है। मगर व्यवस्था यही रही तो देर सबेर सुझाव पर अमल होगा ही। तब दुश्वारियां भी की बढ़ेंगी मगर सीधी जद में सवर्ण अभ्यर्थी ही आयेंगे।
इतिहास में झांकिए। पहले भारतीय प्रशासनिक सेवा में उम्र सीमा 21 से 24 साल थी। ग्रामीण क्षेत्रों के शैक्षिक स्तर, पृष्ठभूमि, आरक्षण की रोशनी में हालात पर हंगामा होने पर सरकार ने 1970 के दशक में सामान्य वर्ग की आयु सीमा 26 वर्ष की। जिसे 1980 में 28 साल और 1990 में 30 साल किया गया। असल में आयु सीमा संबंधी निर्णय तकनीकी से ज्यादा सामाजिक व राजनीतिक रहे हंै। कई साल अपर एज लिमिट  सामान्य श्रेणी के लिए 30 वर्ष, ओबीसी के लिए 33, एससी और एसटी लिए 35 वर्ष थी। सीएसएटी को लेकर हंगामे के बाद 2014 में यूपीए सरकार द्वारा अतिरिक्त प्रयासों के साथ इसे बढ़ाकर क्रमश: 32, 35 और 37 साल कर दिया गया। इसी साल 3 अगस्त को केंद्र की भाजपा सरकार ने राज्यसभा को सूचित किया कि 1 अगस्त, 2018 तक सामान्य वर्ग के उम्म्मीदवारों की अधिकतम आयु 32 साल कर दी गयी है। आरक्षित वर्ग को आयु में तय नियम के अनुसार छूट रहेगी। मगर अब अचानक नीति आयोग का सुझाव आया, जिसमें सामान्य वर्ग की एज लिमिट 27 साल करने की बात है। जिसे 2022 तक लागू होना है। सिफारिश पर अगर अमल हुआ तो सिविल सर्विसेज एक्जाम के लिए आरक्षित श्रेणी में ओबीसी की अधिकतम आयु 30 और एससी-एसटी की 37 से घटकर 32 वर्ष हो जाएगी। यह व्यवस्था ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों के मौके कम कर देगी। दरअसल, नीति आयोग ने जिन अध्ययनों को उम्र कम करने का आधार बनाया है, वह अमूमन देश की ऊंची और संपन्न जातियों के सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि व व्यवहार पर आधारित है। बताया गया है कि नीति आयोग ने  शिकागो विश्वविद्यालय, यूसी बर्कले और लंदन स्कूल आॅफ इकोनॉमिक्स के स्कॉलरों के अध्ययन के आधार पर उम्र घटाने का प्रस्ताव तैयार किया है। केंद्र सरकार ने इसे फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया है, मगर संकेत यह हैं कि इस पर अमल होगा। सेंट्रल टैलेंट पूल भी बनाया  जाएगा। जिसमें कैंडिडेट्स को क्षमता के अनुसार विभिन्न सेवाओं में लगाया जा सकता है। यह सकारात्मक बात हो सकती है, मगर गौर कीजिये  इस समय केंद्र और राज्य स्तर पर 60 से ज्यादा सिविल सर्विसेज हैं, जिनके लिए अलग-अलग परीक्षाएं होती हैं। अगर अधितम उम्र सीमा घटी तो फिर गांव-गलियारे के स्कूलों में पढ़कर मुस्तकबिल बनाने का सपना देखने वाले नौजवानों को क्या प्रतिभा दिखाने का पूरा मौका मिल सकेगा। यह भी याद रखें कि भारत की एक-तिहाई से ज्यादा आबादी की उम्र 35 साल से कम है।