...जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां रूई की तरह उड़ जायेंगें
कहते हैं-'सरकार के हाथ बहुत लम्बे, कान बहुत बड़े होते हैं।' यह सच है ? तब ये बात उस तक कैसे नहीं पहुंच रही कि जो तबका 2014 फिर 2017 में सुबह से शाम तक गांव-गलियारे। खेत-खलिहान। पंचायत घर। चाय-पान की दुकान। यहां तक कि अपने घरों के अंदर सरकार वाले दल (BJP) का पैरोकार था। वही कुछ महीनों के अंदर बेचैन है। बेचैनी भी सामान्य नहीं, समर्थक दल के प्रति उमड़ी भावनाओं को कुचल डालने की हद तक है !! यह स्थिति चंद नौकरशाहों के चलते बन रही है।बात औरैया की घटना से। गांव में प्रदर्शन हो रहा था, एक पत्रकार मौके पर पहुंचा। गांव के ही रहने वाले थे, ग्रामीणों की मनुहार पर पुलिस को फोन कर दिया। चेताया दिया कि " न्याय करो वरनो दिक्कत होगी।" पत्रकारों की यह सामान्य भाषा है। मगर पुलिस ने उन्हीं को मुजरिमा बना दिया। मानिंद लोगों में शुमार प्रेस क्लब अध्यक्ष सुरेश मिश्र ने नाराजगी जाहिर की तो एक शेरेपुश्त से उनके विरुद्ध डकैती का मुकदमा लिखा दिया। हंगामा होना था, हुआ। ढेरों लोग IG कानपुर की ड्योढ़ी पहुंचे, जो गए थे उनके "दिल में सरकार बसती" थी। IG ने दूसरे जिले के ईमानदार अधिकारी को जांच सौंपी। आईओ मौके पर गया-हर पक्ष खंगाला। लिखा-"एफआईआर झूठी है।" अब जिले में डाल-डाल, पांत-पांत का खेल चल रहा है।
बात छिबरामऊ कीः
...बात छिसोमवार को यहां के व्यक्ति ने एक भूखंड की खुदाई शुरू की, इसमें मंदिर के गुंबद जैसा अवशेष नजर आया। भीड़ जुटी। विरोध हंगामे में तब्दील होने लगा। पत्रकार कोतवाली पहुंचे...माहौल संभालने के उपाय पूछे तो पुलिस अपने पर उतर आई। पुलिस जब अपने पर उतरती है तो "लत्ते (सड़ा हुआ कपड़ा) को सांप" बना देती है। उसने वही किया भी। हुक्म जारी हो गया कि ये पत्रकार कोतवाली फटक न पाएं। ये पत्रकार सरकार से भाव विह्वल रहे हैं।
...अब लखीमपुर।
जहां दुघर्टना के बाद पुलिस की कारगुजारी बताने पर कुछ एेसा हुआ-जिसे लिखना उचित नहीं। सहारनपुर, सीतापुर, बांदा, बाराबंकी, उन्नाव समेत कई जिलों के ढेरों किस्से हैं।
....कहने का आशय यह है कि गांव-गलियारे के पत्रकारों को सिर्फ "सूचना प्रेषक" न समझें। जब माननीय सांसद, विधायक, मंत्री, कलेक्टर, एसपी तक पीड़ित नहीं पहुंच पाता तब वह उसी ग्रामीण पत्रकार के पास जाता है। वो यथासामर्थ फोन करता है। उनकी बात लिखता है। जाहिर, धीरे-धीरे उसका अपना जनाधार बनता है, जो जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर होता है।... और हां, इतिहास गवाह है कि देश-दुनिया में हाहाकार मचाने वाली खबरों में से 90 फीसद ग्रामीण पत्रकारों ने ही ब्रेक की हैं। एेसे जनाधार वाले पत्रकारों के दिल में 2014 से उमड़ी भावनाएं कुचल डालने की मंशा परवान चढ़ गई तो "साइनिंग यूपी", "वाइब्रेंट यूपी", "उत्तम यूपी" " विकास की ओर अग्रसर यूपी" के नारे सिर्फ लखनऊ की सुर्खियां बनकर रह जाएंगे... !!!!
सरकार आपके हाथ लंबे हैं, कान बड़े हैं तो गांव-गलियारों की आबोहवा का आकलन कर लें। हां, मेरी बात पर भरोसा न हो तो यूपी में एक "घुमन्तू बाबा" हैं। उनको बुलाकर सच्चाई जान लें। यह बता दूं ये घुमन्तू बाबा 56-58 की उम्र में भी रोडवेज की खटारा बसों से घूम-घूमकर जनता की भावनाएं/ नब्ज परख रहे हैं। कभी-कभार लिख भी देते हैं। ये बाबा सूबे और केन्द्र वाली सरकार के दल को 25 सालों से जान समझ रहे हैं। सुझाव न मानिए तो अपनी इंटेलीजेंस की लंबी-चौड़ी फौज से सच पता कराइए। सच कहता हूं "घुमन्तू बाबा" राजनीतिक झूठ नहीं बोलते हैं।.....