नई दिल्ली के गुरुद्वारा रकाबगंज रोड पर स्थित बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) के केंद्रीय कार्यालय में 30 अक्तूबर को मौजूद पार्टी नेताओं का कोर ग्रुप अपनी राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती के अचानक बदले तेवरों का साक्षी था. यूपी से राज्यसभा जाने वाले पार्टी के दो नेताओं के नाम पर माथापच्ची हो रही थी. पार्टी के भीतर शक्तिशाली ब्राह्मïण लॉबी दो सीटों में से एक पर मायावती सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे नकुल दुबे या विधानपरिषद सदस्य गोपाल नारायण मिश्र को उम्मीदवार बनाने की पुरजोर पैरवी कर रही थी.
लेकिन मायावती ने सबको किनारे कर बीएसपी के पुराने खांटी दलित नेता वीर सिंह एडवोकेट और राजाराम को राज्यसभा चुनाव में पार्टी का टिकट थमा दिया. इस बदले रुख से साफ है कि लोकसभा चुनाव और उसके बाद यूपी में हुए उपचुनाव के नतीजों के बाद मायावती एक बार फिर दलितों की ओर झुकती दिख रही हैं. हालांकि वे कहती हैं, ''दलित जाति के अलावा यदि किसी अन्य जाति के उम्मीदवार को उतारा जाता तो दूसरे वर्ग के लोग नाराज हो जाते. इसीलिए दोनों सीटों पर केवल दलित जाति के उम्मीदवारों को ही टिकट दिया गया है. ''
दलितों को लुभाने की कवायद में कांग्रेस भी पीछे नहीं है. कांग्रेस ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया को अपना उम्मीदवार बनाया. यूपी विधानसभा में 28 विधायकों वाली कांग्रेस के दलित उम्मीवार का समर्थन कर समाजवादी पार्टी (सपा) ने भी दलितों के प्रति अपना झुकाव जाहिर किया.
दलितों की गोलबंदी में जुटे राजनैतिक दलों के बीच बीजेपी भी शांत नहीं है. तीन माह पहले अमित शाह की टीम में राष्ट्रीय महामंत्री का दायित्व संभालने वाले आगरा से सांसद और दलित (धानुक) नेता राम शंकर कठेरिया को नरेंद्र मोदी ने 9 नवंबर को हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में राज्यमंत्री के रूप में शामिल कर लिया. यह बीजेपी का दलित दांव था.
वास्तव में मई में हुए लोकसभा चुनाव में 72 सीटों के साथ सभी 17 सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली बीजेपी के साथ दलित मतदाताओं का एक तबका खड़ा दिखा. सितंबर-अक्ïतूबर में 12 सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव में सपा ने भी दलितों का समर्थन जुटाकर नौ सीटों पर कब्जा जमा लिया. बीएसपी का आधार वोट बैंक माने जाने वाले दलितों के बदले रुख ने दूसरी पार्टियों के लिए उम्मीदें जगा दी हैं. सभी की नजर अब उस दलित वोट पर है.
राज्यसभा के लिए नामांकन दाखिल करते बीएसपी के वीर सिंह
(राज्यसभा के लिए नामांकन दाखिल करते बीएसपी के वीर सिंह)
दलित वोटों की ओर वापसी
लोकसभा चुनाव के नतीजे आते ही मायावती को अपना दलित जनाधार खिसकने का एहसास हो गया था. उन्होंने कहा था, ''लोकसभा चुनाव में दलित तो बीएसपी के साथ चट्टान की तरह खड़ा रहा, लेकिन अपर कास्ट विपक्षियों के बहकावे में आ गया. '' जाहिर है कि मायावती अपर कास्ट की बात कर रही थीं, लेकिन संदेश दलितों के लिए था. बीएसपी के एक पदाधिकारी कहते हैं, ''चूंकि लोकसभा चुनाव, यूपी में हुए उपचुनाव और हरियाणा, महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों से साफ है कि बीएसपी का दलित वोट बैंक तेजी से दूसरी पार्टियों की ओर खिसका है. यह अगड़ी जातियों को तवज्जो देने का नतीजा है. '' इसी बदलाव को भांपते हुए मायावती ने इंद्रजीत सरोज, आर.के. चौधरी, एमएलसी तिलकचंद अहिरवार, डॉ. राम प्रकाश कुरील और एमएलसी सुनील कुमार चित्तौड़ जैसे पुराने मिशनरी दलित नेताओं को अब आगे किया है. यह विधानसभा चुनावों के लिए उनकी नई रणनीति का संकेत है.
राज्यमंत्री बनाए जाने के बाद राम शंकर कठेरिया का स्वागत
(राज्यमंत्री बनाए जाने के बाद राम शंकर कठेरिया का स्वागत)
माया के हथियार से मुलायम का वार
सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर रही सपा भले ही दलितों के निशाने पर रही हो, लेकिन मुलायम सिंह यादव के एक दांव ने विधानसभा उपचुनाव में समीकरण बदल दिए. मुलायम ने सितंबर में हुए चुनाव में सिराथू विधानसभा की सामान्य सीट पर कभी मायावती के सहयोगी रहे दलित नेता वाचस्पति को उतार कर सबको चौंका दिया था. वाचस्पति ने भारी अंतर से यह सीट सपा के लिए जीत ली. इसी तरह बलहा सुरक्षित विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी मुलायम ने मायावती के करीबी रहे दलित नेता बंशीधर बुद्घ को ऐन नामांकन वाले दिन मैदान में उतारकर बाजी मार ली थी. राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के दलित उम्मीदवार पी.एल. पुनिया को बिना शर्त समर्थन देना भी इसी रणनीति का हिस्सा था. सपा के वरिष्ठ नेता और कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह यादव कहते हैं, ''दलितों को सपा सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ मिला है. उन्हें समझ में आ गया है कि बीएसपी और बीजेपी ने अब तक केवल उनका इस्तेमाल ही किया है. ''
बीजेपी ने शुरू की घेराबंदी
लोकसभा चुनाव में मिले दलितों के समर्थन से सभी 17 सुरक्षित सीटें जीतने वाली बीजेपी ने 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी है. 5 नवंबर को राष्ट्रीय अनुसूचित मोर्चा के गठन में यूपी के दलित चेहरों को तवज्जो दी गई है. जाटव समाज से आने वाले दिवाकर सेठ को अनुसूचित मोर्चे का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में बीएसपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश शुरू कर दी है. 1993 और 1996 के विधानसभा चुनाव में तकरीबन आधी सुरक्षित सीटें जीतने वाली बीजेपी का ग्राफ अचानक वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव से गिरने लगा था. (देखें बॉक्स) बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चे के पूर्व öदेश अध्यह्न रामनरेश रावत कहते हैं, ''मायावती को समर्थन देने के बाद से पार्टी से जुड़े दलित छिटककर बीएसपी की ओर चले गए थे. '' अब पार्टी ने दलित बस्तियों में वाल्मीकि, रैदास, ज्योतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर का जन्मदिवस मनाने का निर्णय लिया है और पश्चिमी यूपी की दंगा पीडि़त दलित बस्तियों में 'समरसता सम्मेलन' की शुरुआत की जा रही है.
यूपी में सुरक्षित सीटों पर बदलता रहा है दलितों का मिजाज
कांग्रेस ने भी डाले डोरे
कांग्रेस ने अपने दलित चेहरे पी. एल. पुनिया को राज्यसभा में पहुंचाकर यूपी में दलितों का समर्थन बटोरने के लिए चल रही जोर-आजमाइश को चतुष्कोणीय बना दिया है. ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अनुसूचित जाति विभाग के चेयरमैन के. राजू कहते हैं, ''दलितों का विश्वास जीतने के लिए अनुसूचित जाति विभाग प्रदेश में पहले दलित लीडरशिप को आगे बढ़ाएगा.'' यूपी में पुनिया की निगरानी में कांग्रेस कार्यकर्ता फिलहाल यह पता लगाने में जुट गए हैं कि प्रदेश में दलितों की कितनी जमीन पर अवैध कब्जे हुए हैं. इसके बाद पार्टी एक श्वेत पत्र जारी कर दलित शोषण की घटनाओं का खुलासा करेगी.
बहरहाल यूपी में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिनमें महज आधा दर्जन को ही राजनैतिक मंचों पर जगह मिल रही है. शेष अब भी हाशिए पर हैं. सभी पार्टियों की निगाह अब उन पर पर टिकी है. आने वाले दिनों में भारत में दलित राजनीति और भी गंभीर उथल-पुथल और बदलावों की गवाह बन सकती है.
और भी
लेकिन मायावती ने सबको किनारे कर बीएसपी के पुराने खांटी दलित नेता वीर सिंह एडवोकेट और राजाराम को राज्यसभा चुनाव में पार्टी का टिकट थमा दिया. इस बदले रुख से साफ है कि लोकसभा चुनाव और उसके बाद यूपी में हुए उपचुनाव के नतीजों के बाद मायावती एक बार फिर दलितों की ओर झुकती दिख रही हैं. हालांकि वे कहती हैं, ''दलित जाति के अलावा यदि किसी अन्य जाति के उम्मीदवार को उतारा जाता तो दूसरे वर्ग के लोग नाराज हो जाते. इसीलिए दोनों सीटों पर केवल दलित जाति के उम्मीदवारों को ही टिकट दिया गया है. ''
दलितों को लुभाने की कवायद में कांग्रेस भी पीछे नहीं है. कांग्रेस ने राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया को अपना उम्मीदवार बनाया. यूपी विधानसभा में 28 विधायकों वाली कांग्रेस के दलित उम्मीवार का समर्थन कर समाजवादी पार्टी (सपा) ने भी दलितों के प्रति अपना झुकाव जाहिर किया.
दलितों की गोलबंदी में जुटे राजनैतिक दलों के बीच बीजेपी भी शांत नहीं है. तीन माह पहले अमित शाह की टीम में राष्ट्रीय महामंत्री का दायित्व संभालने वाले आगरा से सांसद और दलित (धानुक) नेता राम शंकर कठेरिया को नरेंद्र मोदी ने 9 नवंबर को हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल विस्तार में राज्यमंत्री के रूप में शामिल कर लिया. यह बीजेपी का दलित दांव था.
वास्तव में मई में हुए लोकसभा चुनाव में 72 सीटों के साथ सभी 17 सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाने वाली बीजेपी के साथ दलित मतदाताओं का एक तबका खड़ा दिखा. सितंबर-अक्ïतूबर में 12 सीटों पर हुए विधानसभा उपचुनाव में सपा ने भी दलितों का समर्थन जुटाकर नौ सीटों पर कब्जा जमा लिया. बीएसपी का आधार वोट बैंक माने जाने वाले दलितों के बदले रुख ने दूसरी पार्टियों के लिए उम्मीदें जगा दी हैं. सभी की नजर अब उस दलित वोट पर है.
राज्यसभा के लिए नामांकन दाखिल करते बीएसपी के वीर सिंह
(राज्यसभा के लिए नामांकन दाखिल करते बीएसपी के वीर सिंह)
दलित वोटों की ओर वापसी
लोकसभा चुनाव के नतीजे आते ही मायावती को अपना दलित जनाधार खिसकने का एहसास हो गया था. उन्होंने कहा था, ''लोकसभा चुनाव में दलित तो बीएसपी के साथ चट्टान की तरह खड़ा रहा, लेकिन अपर कास्ट विपक्षियों के बहकावे में आ गया. '' जाहिर है कि मायावती अपर कास्ट की बात कर रही थीं, लेकिन संदेश दलितों के लिए था. बीएसपी के एक पदाधिकारी कहते हैं, ''चूंकि लोकसभा चुनाव, यूपी में हुए उपचुनाव और हरियाणा, महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों से साफ है कि बीएसपी का दलित वोट बैंक तेजी से दूसरी पार्टियों की ओर खिसका है. यह अगड़ी जातियों को तवज्जो देने का नतीजा है. '' इसी बदलाव को भांपते हुए मायावती ने इंद्रजीत सरोज, आर.के. चौधरी, एमएलसी तिलकचंद अहिरवार, डॉ. राम प्रकाश कुरील और एमएलसी सुनील कुमार चित्तौड़ जैसे पुराने मिशनरी दलित नेताओं को अब आगे किया है. यह विधानसभा चुनावों के लिए उनकी नई रणनीति का संकेत है.
राज्यमंत्री बनाए जाने के बाद राम शंकर कठेरिया का स्वागत
(राज्यमंत्री बनाए जाने के बाद राम शंकर कठेरिया का स्वागत)
माया के हथियार से मुलायम का वार
सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण का विरोध कर रही सपा भले ही दलितों के निशाने पर रही हो, लेकिन मुलायम सिंह यादव के एक दांव ने विधानसभा उपचुनाव में समीकरण बदल दिए. मुलायम ने सितंबर में हुए चुनाव में सिराथू विधानसभा की सामान्य सीट पर कभी मायावती के सहयोगी रहे दलित नेता वाचस्पति को उतार कर सबको चौंका दिया था. वाचस्पति ने भारी अंतर से यह सीट सपा के लिए जीत ली. इसी तरह बलहा सुरक्षित विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी मुलायम ने मायावती के करीबी रहे दलित नेता बंशीधर बुद्घ को ऐन नामांकन वाले दिन मैदान में उतारकर बाजी मार ली थी. राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के दलित उम्मीदवार पी.एल. पुनिया को बिना शर्त समर्थन देना भी इसी रणनीति का हिस्सा था. सपा के वरिष्ठ नेता और कैबिनेट मंत्री शिवपाल सिंह यादव कहते हैं, ''दलितों को सपा सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ मिला है. उन्हें समझ में आ गया है कि बीएसपी और बीजेपी ने अब तक केवल उनका इस्तेमाल ही किया है. ''
बीजेपी ने शुरू की घेराबंदी
लोकसभा चुनाव में मिले दलितों के समर्थन से सभी 17 सुरक्षित सीटें जीतने वाली बीजेपी ने 2017 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी है. 5 नवंबर को राष्ट्रीय अनुसूचित मोर्चा के गठन में यूपी के दलित चेहरों को तवज्जो दी गई है. जाटव समाज से आने वाले दिवाकर सेठ को अनुसूचित मोर्चे का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में बीएसपी के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश शुरू कर दी है. 1993 और 1996 के विधानसभा चुनाव में तकरीबन आधी सुरक्षित सीटें जीतने वाली बीजेपी का ग्राफ अचानक वर्ष 2002 के विधानसभा चुनाव से गिरने लगा था. (देखें बॉक्स) बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चे के पूर्व öदेश अध्यह्न रामनरेश रावत कहते हैं, ''मायावती को समर्थन देने के बाद से पार्टी से जुड़े दलित छिटककर बीएसपी की ओर चले गए थे. '' अब पार्टी ने दलित बस्तियों में वाल्मीकि, रैदास, ज्योतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर का जन्मदिवस मनाने का निर्णय लिया है और पश्चिमी यूपी की दंगा पीडि़त दलित बस्तियों में 'समरसता सम्मेलन' की शुरुआत की जा रही है.
यूपी में सुरक्षित सीटों पर बदलता रहा है दलितों का मिजाज
कांग्रेस ने भी डाले डोरे
कांग्रेस ने अपने दलित चेहरे पी. एल. पुनिया को राज्यसभा में पहुंचाकर यूपी में दलितों का समर्थन बटोरने के लिए चल रही जोर-आजमाइश को चतुष्कोणीय बना दिया है. ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के अनुसूचित जाति विभाग के चेयरमैन के. राजू कहते हैं, ''दलितों का विश्वास जीतने के लिए अनुसूचित जाति विभाग प्रदेश में पहले दलित लीडरशिप को आगे बढ़ाएगा.'' यूपी में पुनिया की निगरानी में कांग्रेस कार्यकर्ता फिलहाल यह पता लगाने में जुट गए हैं कि प्रदेश में दलितों की कितनी जमीन पर अवैध कब्जे हुए हैं. इसके बाद पार्टी एक श्वेत पत्र जारी कर दलित शोषण की घटनाओं का खुलासा करेगी.
बहरहाल यूपी में दलितों की कुल 66 उपजातियां हैं, जिनमें महज आधा दर्जन को ही राजनैतिक मंचों पर जगह मिल रही है. शेष अब भी हाशिए पर हैं. सभी पार्टियों की निगाह अब उन पर पर टिकी है. आने वाले दिनों में भारत में दलित राजनीति और भी गंभीर उथल-पुथल और बदलावों की गवाह बन सकती है.
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