Wednesday 16 September 2015

राजनीति की प्रारंभिक पाठशाला

 सत्ता बदलने का असर राजनीति की प्रारंभिक पाठशाला यानी पंचायतों में भी दिखाई देने लगा है.। 2010 के अंत में जब जिला पंचायत अध्यक्ष का चुनाव हुआ तो श्रावस्ती में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समर्थित उम्मीदवार रुक्मिणी सिंह जीत गईं. मगर समाजवादी पार्टी (सपा) की सरकार बनने के बाद वे जिला पंचायत सदस्यों को खटकने लगीं.
सदस्यों के अविश्वास प्रस्ताव से जब उनकी कुर्सी जाने का खतरा मंडराया तो उन्होंने अपने पति राम प्रताप सिंह समेत सपा की सदस्यता ले ली। कुछ ऐसा ही वाकया रामपुर में सामने आया है, जहां बसपा समर्थित पंचायत अध्यक्ष अब्दुल सलाम सत्ता बदलते ही सपा के खेमे में जाने की जुगत में लग गए। उनके बदले रुख की जानकारी मिलते ही बसपा ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। हरदोई में कामिनी अग्रवाल ने भी हाथी पर सवार होकर पंचायत अध्यक्ष का चुनाव जीता, लेकिन पति मुकेश अग्रवाल के साइकिल सवार होते ही वे बसपा छोड़ सपा में शामिल हो गईं। ये कुछ उदाहरण इस ओर इशारा करते हैं कि राज्य की जिला पंचायतों में इस वक्त दलगत निष्ठा बदलने का खेल शुरू हो चुका है। 2010 के अंत में हुए चुनाव में 72 सीटों में से 55 पर बसपा ने जीत का परचम लहराया था, जबकि दस सीटें सपा ने जीती थी। बाकी कांग्रेस, रालोद और भाजपा के बीच साझ हुई थीं। यही हाल प्रदेश के 813 क्षेत्र पंचायत अध्यक्षों (ब्लॉक प्रमुख) के चुनाव का भी था. यह सत्ता की हनक ही थी कि बसपा नेताओं ने करीब दो दर्जन सीटों पर अपने रिश्तेदारों को बगैर सदस्य का चुनाव लड़े जिला पंचायत अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया।
इन जिला पंचायत अध्यक्षों पर कोई आंच न आए, इसके लिए भी उस समय सत्तारूढ़ बसपा ने 'उत्तर प्रदेश क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत संशोधन विधेयक-2011' के जरिए क्षेत्र पंचायत प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्षों के खिलाफ लाए जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव की मियाद को एक वर्ष से बढ़ाकर दो वर्ष कर दी। 
हालांकि इस विधेयक को राज्यपाल की मंजूरी नहीं मिली थी. मगर प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाने के बाद सपा ने उक्त संशोधन विधेयक को वापस लेकर बसपाई जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों को हटाने का रास्ता साफ कर दिया. फिर तो लगभग हर जिले में जिला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुखों के खिलाफ अविश्वास प्रस्तावों की बाढ़ आ गई.
खाता खुला हमीरपुर से. यहां बसपा प्रत्याशी संजय दीक्षित को कुर्सी गंवानी पड़ी. इसी तरह सिद्घार्थनगर के प्रमोद यादव, कन्नौज में मुन्नी देवी आंबेडकर की कुर्सी छिन गई. आजमगढ़ में वरिष्ठ बसपा नेता गांधी आजाद के भाई की पत्नी मीरा आजाद भी रुखसत हो गईं. इसी तरह बिजनौर की नसरीन सैफी, सोनभद्र के दिलीप मौर्य, पीलीभीत की अनीता वर्मा को भी अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा. मिर्जापुर, लखनऊ, मेरठ, मुरादाबाद, बागपत, मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर में बदलाव की सुगबुगाहट महसूस की जा रही है.
बाराबंकी में भाजपा के पंचायत प्रकोष्ठ के पूर्व अध्यक्ष रामजी तिवारी बताते हैं कि बसपा समर्थित जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों ने डेढ़ वर्ष के कार्यकाल में कोई विकास कार्य नहीं किया. इससे जिला और क्षेत्र पंचायत सदस्यों में भारी असंतोष था. चूंकि इन्हें अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटाने की मियाद बढ़ा दी गई थी, ऐसे में इन जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लाक प्रमुखों ने निरंकुश ढंग से अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया.
जिस तरह जिला पंचायत अध्यह्नों और ब्लॉक प्रमुखों की कुर्सी जाने का खतरा मंडरा रहा है उससे बचने के लिए ये नेता सत्तारूढ़ दल में ठिकाना तलाशने की कवायद में जुट गए हैं. करीब तीन दर्जन जिला पंचायत अध्यक्ष और 100 के करीब ब्लॉक प्रमुख सपा में आने को बेचैन हैं. इनमें से कई ने पंचायतीराज मंत्री बलराम यादव से संपर्क साधा है.
यादव कहते हैं, ''जिन लोगों ने सत्ता का दबाव बनाकर जिला पंचायत अध्यक्ष या ब्लॉक प्रमुख की कुर्सी हथियाई है, उनमें से अधिकांश सपा में शामिल होना चाहते हैं. ऐसे लोगों को डर है कि प्रतिद्वंद्वी उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव ला सकते हैं. हालांकि सपा किसी के भी खिलाफ बदले की भावना से कार्रवाई नहीं करेगी.''
सपा सरकार इस मामले में भले ही किसी भूमिका से इनकार कर रही हो, लेकिन जिस तरह से एक-एक कर बसपा के जिला पंचायत अध्यक्षों और ब्लॉक प्रमुखों को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ रही है, उसने राज्य के सियासी माहौल को गरमा दिया है. बसपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य कहते हैं, ''सपा ने सरकार बनाते ही पंचायतों के लोकतांत्रिक स्वरूप को खत्म करना शुरू कर दिया है.'' मगर सपा के प्रदेश प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी बसपा के ऊपर पलटवार करते हुए कहते हैं, ''बसपा सरकार में लोकतंत्र को बंधक बनाकर जबरदस्ती कुर्सी कब्जाने वालों को अब जनता जवाब दे रही है.''

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