2 may 2016 published_ 3 may
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-लंबित छह विधेयकों में दो-तीन भेजे जा सकते हैं राष्ट्रपति को
-वापसी की दशा में संशोधित विधेयक को मिल सकती है मंजूरी
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लखनऊ: राज्यपाल राम नाईक ने सैफई के ग्रामीण इंस्टीट्यूट को प्रदेश के दूसरे चिकित्सा विश्वविद्यालय का दर्जा देकर भले ही सपा सरकार को बड़ी राहत दी हो लेकिन अन्य लंबित विधेयकों को यूं ही राजभवन से हरी झंडी मिलती नहीं दिख रही है। अब आधा दर्जन लंबित विधेयकों में से दो-तीन को जहां राज्यपाल, राष्ट्रपति को भेज सकते हैं वहीं शेष को तभी मंजूरी मिलने के आसार हैं जब राज्य सरकार, राज्यपाल द्वारा उठाई गई आपत्तियों को दूर करने को तैयार हो।
दरअसल, महापौरों के अधिकारों में कटौती करने संबंधी उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक-2015 सहित कुल सात विधेयक पिछले वर्ष से राजभवन में लंबित थे। विधानमंडल से पारित इस विधेयक को मंजूरी न मिलने पर तो संसदीय कार्यमंत्री मो. आजम खां सदन के अंदर से बाहर तक राज्यपाल पर लगातार टिप्पणी कर रहे हैं। इस पर नाराज नाईक द्वारा कड़ी आपत्ति उठाने पर 30 अप्रैल को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खुद राजभवन पहुंचे थे। लगभग एक घंटे की मुलाकात में नाईक ने अखिलेश को बताया कि आखिर वह क्यों विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं? मुलाकात के बाद ही राज्यपाल ने दो-चार दिनों में सभी विधेयकों को निस्तारित करने के संकेत दिए थे।
हुआ भी वैसा ही, रविवार के अवकाश के बाद सोमवार दोपहर में ही राजभवन के प्रवक्ता ने राज्यपाल द्वारा उत्तर प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय, सैफई, इटावा, विधेयक, 2015 को मंजूरी देने की जानकारी दी। उल्लेखनीय है कि सैफई से जुड़े विधेयक को हरी झंडी दिलाने के लिए पूर्व में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी राज्यपाल से मिलने पहुंचे थे।
गौर करने की बात यह कि अब राजभवन में लंबित रह गए छह विधेयकों में से किसी पर भी मौजूदा रूप में राज्यपाल की सहमति मिलने की कतई उम्मीद नहीं है। सूत्रों के मुताबिक राज्यपाल द्वारा उठाई गई आपत्तियों के मद्देनजर जिन विधेयकों को सरकार संशोधित करने को तैयार होगी उन्हें राज्यपाल एक-दो दिन में वापस सरकार को भेज देंगे। इनमें डॉ0 राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015 व आईआईएमटी विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश विधेयक, 2016 हो सकता है। चूंकि लोकायुक्त का चयन हो चुका है इसलिए अब उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त एवं उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधेयक, 2015 को लेकर सरकार भी फिक्रमंद नहीं है। सरकार इसे वापस ले सकती है।
सूत्र बताते हैं कि महापौरों के अधिकारों में कटौती करने संबंधी उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2015, उत्तर प्रदेश नगरपालिका विधि (संशोधन) विधेयक, 2015, उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) विधेयक, 2015 को राज्यपाल राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। कारण है कि आजम के रुख से यही लगता है कि सरकार इन विधेयकों में किसी तरह का बदलाव नहीं करना चाहती है। राज्यपाल भी इन्हें वापस नहीं करना चाहेंगे क्योंकि यदि सरकार ने फिर विधानमंडल से पारित कराकर राजभवन को भेजा तो उनके सामने सिवाय मंजूरी देने के दूसरा कोई रास्ता नहीं बचेगा। ऐसे में यही माना जा रहा है कि राज्यपाल इन विधेयकों को राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो शायद ही मौजूदा सरकार के दौरान संबंधित विधेयक को हरी झंडी मिल पाए।
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क्या है लंबित विधेयकों में
1-उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक-2015 : नगर निगम से लेकर नगर पालिका परिषद व नगर पंचायतों के लिए सरकार एक कानून चाहती है। वर्तमान में नगर पालिका परिषद व नगर पंचायतों के लिए सौ वर्ष पुराना उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम-1916 जबकि नगर निगमों के लिए उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम-1959 है। विधेयक में चूंकि कर्तव्यों एवं दायित्वों के निर्वहन में किसी तरह की चूक के लिए प्रथम दृष्टया दोषी पाए जाने पर नगर पालिका परिषद व नगर पंचायतों के अध्यक्षों की तरह कारण बताओ नोटिस जारी होते ही महापौर के भी वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार पर रोक लगाने और जांच में दोषी पाए जाने पर सरकार द्वारा उन्हें पद से हटाने की व्यवस्था है, इसलिए महापौर इसे संंविधान की मंशा के विपरीत बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं।
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2.-उत्तर प्रदेश नगर पालिका विधि (संशोधन) विधेयक-2015 : इससे राज्य सरकार नगर निगम में नामित पार्षदों को निगम की बैठक तथा नगर पालिका परिषद व नगर पंचायत में नामित सदस्य को नगर पालिका की बैठकों में मत देने के अधिकार को समाप्त करना चाहती है। गौरतलब है वर्ष 2005 में उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम-1916 व उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम-1959 में संशोधन कर सरकार ने नामित पार्षदों व सदस्यों को मत देने का अधिकार दिया था। अब मनोनीत पार्षदों व सदस्यों को बैठकों में मत देने के अधिकार को संविधान के विपरीत मानते हुए सरकार, उत्तर प्रदेश विधि (संशोधन) विधेयक के माध्यम से मताधिकार समाप्त करना चाहती है। राज्य सकार नगर निगम में 10 पार्षद और नगर पालिका परिषद में पांच व नगर पंचायतों में तीन सदस्य नामित कर सकती है।
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3. उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) विधेयक, 2015: इसमें अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा देने का प्रस्ताव है। इसके लिए राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1994 में संशोधन करने का निर्णय किया था। सूत्रों के मुताबिक अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा देने को संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत मानते हुए ही राज्यपाल इस विधेयक को मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
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उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के मंत्री का दर्जा देने की प्रक्रिया राज्य सरकार ने सितंबर 2014 में शुरू हुई थी। समाजवादी सरकार ने उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1994 (उप्र अधिनियम संख्या 22) में बदलाव करते हुए उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) अध्यादेश-2014 के जरिये आयोग के अध्यक्ष को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने का प्रस्ताव राजभवन भेजा था। राज्यपाल राम नाईक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने के बजाय सरकार से कुछ सवालों के जवाब मांगे। 10 सितंबर 2014 को राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र कहा था कि अध्यादेश में 'तात्कालिकताÓ होना जरूरी शर्त होती है जब 1994 से अब तक आयोग बिना मंत्री के दर्जा के चल रहा है, तब अध्यादेश क्यों? इसके अलावा राज्यपाल ने कहा कि केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को सिर्फ लोकसेवक माना गया है और राज्य के दूसरे आयोग के अध्यक्षों को मंत्री का दर्जा नहीं है। इसके अलावा सांविधानिक और अदालती आदेशों का हवाला दिया था।
राजभवन के इस रुख के बाद समाजवादी सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा देने का बिल विधानमंडल के दोनों सदनों से पारित कराया। और उसे उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) विधेयक, 2015 नाम देते हुए राजभवन को भेज दिया। राज्यपाल ने इस बिल पर अभी हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
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4-डॉ.राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015 : इसमें संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआइ) की तुलना में राज्यपाल का हस्तक्षेप कम किया गया है। एसजीपीजीआइ में निदेशक की नियुक्ति सहित अन्य अतिमहत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन राज्यपाल, संस्थान के विजिटर के रूप में करते हैं। लोहिया संस्थान में यह भूमिका समाप्त कर अध्यक्ष के रूप में मुख्य सचिव को सौंप दी गयी है। माना जा रहा है कि इसी कारण राज्यपाल ने यह विधेयक अब तक मंजूर नहीं किया है।
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5-उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त तथा उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधयेक, 2015: इसमें लोकायुक्त चयन समिति से हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीश की भूमिका खत्म करने और उनके स्थान पर नयी चयन समिति का प्रस्ताव है। मौजूदा समय में लोकायुक्त समिति में मुख्यमंत्री, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सदस्य हैं। इस विधेयक के विचाराधीन रहते ही सुप्रीम कोर्ट ने लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी है।
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6-आइआइएमटी विश्वविद्यालय, मेरठ, उप्र विधेयक, 2016 : इस विधेयक के कुछ प्रावधानों से राज्यपाल सहमत नहीं है। विधेयक में विश्वविद्यालय कर्मचारियों की सेवा शर्तों को लेकर उन्हें आपत्ति है। विधेयक की धारा-32 में प्रावधान है कि विश्वविद्यालय और उसमें मौलिक रूप से नियुक्त किसी कर्मचारी के बीच हुआ विवाद कुलपति को संदर्भित किया जाएगा। कुलपति विवाद के संदर्भित होने से तीन महीने के अंदर कर्मचारी को अवसर देने के बाद विवाद का निपटारा करेगा। कुलपति के आदेश से व्यथित कर्मचारी कुलाधिपति को अपील कर सकता है। ऐसे मामले में कुलाधिपति का निर्णय अंतिम होगा जिसके खिलाफ किसी न्यायालय में कोई वाद नहीं दाखिल किया जाएगा। कर्मचारियों को अदालत जाने के अधिकार से वंचित करने के प्रावधान से राज्यपाल असहमत हैं। विधेयक में कहा गया है कि प्रायोजक निकाय विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मानकों व शर्तों को पूरा करेगा। लेकिन विधेयक के कई प्रावधान यूजीसी की मंशा के विपरीत हैं जिनसे राज्यपाल संतुष्ट नहीं हैं।
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-लंबित छह विधेयकों में दो-तीन भेजे जा सकते हैं राष्ट्रपति को
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लखनऊ: राज्यपाल राम नाईक ने सैफई के ग्रामीण इंस्टीट्यूट को प्रदेश के दूसरे चिकित्सा विश्वविद्यालय का दर्जा देकर भले ही सपा सरकार को बड़ी राहत दी हो लेकिन अन्य लंबित विधेयकों को यूं ही राजभवन से हरी झंडी मिलती नहीं दिख रही है। अब आधा दर्जन लंबित विधेयकों में से दो-तीन को जहां राज्यपाल, राष्ट्रपति को भेज सकते हैं वहीं शेष को तभी मंजूरी मिलने के आसार हैं जब राज्य सरकार, राज्यपाल द्वारा उठाई गई आपत्तियों को दूर करने को तैयार हो।
दरअसल, महापौरों के अधिकारों में कटौती करने संबंधी उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक-2015 सहित कुल सात विधेयक पिछले वर्ष से राजभवन में लंबित थे। विधानमंडल से पारित इस विधेयक को मंजूरी न मिलने पर तो संसदीय कार्यमंत्री मो. आजम खां सदन के अंदर से बाहर तक राज्यपाल पर लगातार टिप्पणी कर रहे हैं। इस पर नाराज नाईक द्वारा कड़ी आपत्ति उठाने पर 30 अप्रैल को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव खुद राजभवन पहुंचे थे। लगभग एक घंटे की मुलाकात में नाईक ने अखिलेश को बताया कि आखिर वह क्यों विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे हैं? मुलाकात के बाद ही राज्यपाल ने दो-चार दिनों में सभी विधेयकों को निस्तारित करने के संकेत दिए थे।
हुआ भी वैसा ही, रविवार के अवकाश के बाद सोमवार दोपहर में ही राजभवन के प्रवक्ता ने राज्यपाल द्वारा उत्तर प्रदेश आयुर्विज्ञान विश्वविद्यालय, सैफई, इटावा, विधेयक, 2015 को मंजूरी देने की जानकारी दी। उल्लेखनीय है कि सैफई से जुड़े विधेयक को हरी झंडी दिलाने के लिए पूर्व में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी राज्यपाल से मिलने पहुंचे थे।
गौर करने की बात यह कि अब राजभवन में लंबित रह गए छह विधेयकों में से किसी पर भी मौजूदा रूप में राज्यपाल की सहमति मिलने की कतई उम्मीद नहीं है। सूत्रों के मुताबिक राज्यपाल द्वारा उठाई गई आपत्तियों के मद्देनजर जिन विधेयकों को सरकार संशोधित करने को तैयार होगी उन्हें राज्यपाल एक-दो दिन में वापस सरकार को भेज देंगे। इनमें डॉ0 राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015 व आईआईएमटी विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश विधेयक, 2016 हो सकता है। चूंकि लोकायुक्त का चयन हो चुका है इसलिए अब उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त एवं उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधेयक, 2015 को लेकर सरकार भी फिक्रमंद नहीं है। सरकार इसे वापस ले सकती है।
सूत्र बताते हैं कि महापौरों के अधिकारों में कटौती करने संबंधी उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक, 2015, उत्तर प्रदेश नगरपालिका विधि (संशोधन) विधेयक, 2015, उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) विधेयक, 2015 को राज्यपाल राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। कारण है कि आजम के रुख से यही लगता है कि सरकार इन विधेयकों में किसी तरह का बदलाव नहीं करना चाहती है। राज्यपाल भी इन्हें वापस नहीं करना चाहेंगे क्योंकि यदि सरकार ने फिर विधानमंडल से पारित कराकर राजभवन को भेजा तो उनके सामने सिवाय मंजूरी देने के दूसरा कोई रास्ता नहीं बचेगा। ऐसे में यही माना जा रहा है कि राज्यपाल इन विधेयकों को राष्ट्रपति को भेज सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो शायद ही मौजूदा सरकार के दौरान संबंधित विधेयक को हरी झंडी मिल पाए।
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क्या है लंबित विधेयकों में
1-उत्तर प्रदेश नगर निगम (संशोधन) विधेयक-2015 : नगर निगम से लेकर नगर पालिका परिषद व नगर पंचायतों के लिए सरकार एक कानून चाहती है। वर्तमान में नगर पालिका परिषद व नगर पंचायतों के लिए सौ वर्ष पुराना उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम-1916 जबकि नगर निगमों के लिए उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम-1959 है। विधेयक में चूंकि कर्तव्यों एवं दायित्वों के निर्वहन में किसी तरह की चूक के लिए प्रथम दृष्टया दोषी पाए जाने पर नगर पालिका परिषद व नगर पंचायतों के अध्यक्षों की तरह कारण बताओ नोटिस जारी होते ही महापौर के भी वित्तीय एवं प्रशासनिक अधिकार पर रोक लगाने और जांच में दोषी पाए जाने पर सरकार द्वारा उन्हें पद से हटाने की व्यवस्था है, इसलिए महापौर इसे संंविधान की मंशा के विपरीत बताते हुए इसका विरोध कर रहे हैं।
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2.-उत्तर प्रदेश नगर पालिका विधि (संशोधन) विधेयक-2015 : इससे राज्य सरकार नगर निगम में नामित पार्षदों को निगम की बैठक तथा नगर पालिका परिषद व नगर पंचायत में नामित सदस्य को नगर पालिका की बैठकों में मत देने के अधिकार को समाप्त करना चाहती है। गौरतलब है वर्ष 2005 में उत्तर प्रदेश नगर पालिका अधिनियम-1916 व उत्तर प्रदेश नगर निगम अधिनियम-1959 में संशोधन कर सरकार ने नामित पार्षदों व सदस्यों को मत देने का अधिकार दिया था। अब मनोनीत पार्षदों व सदस्यों को बैठकों में मत देने के अधिकार को संविधान के विपरीत मानते हुए सरकार, उत्तर प्रदेश विधि (संशोधन) विधेयक के माध्यम से मताधिकार समाप्त करना चाहती है। राज्य सकार नगर निगम में 10 पार्षद और नगर पालिका परिषद में पांच व नगर पंचायतों में तीन सदस्य नामित कर सकती है।
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3. उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) विधेयक, 2015: इसमें अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा देने का प्रस्ताव है। इसके लिए राज्य सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम 1994 में संशोधन करने का निर्णय किया था। सूत्रों के मुताबिक अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा देने को संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत मानते हुए ही राज्यपाल इस विधेयक को मंजूरी नहीं दे रहे हैं।
detail...................
उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष के मंत्री का दर्जा देने की प्रक्रिया राज्य सरकार ने सितंबर 2014 में शुरू हुई थी। समाजवादी सरकार ने उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1994 (उप्र अधिनियम संख्या 22) में बदलाव करते हुए उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) अध्यादेश-2014 के जरिये आयोग के अध्यक्ष को कैबिनेट मंत्री का दर्जा देने का प्रस्ताव राजभवन भेजा था। राज्यपाल राम नाईक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने के बजाय सरकार से कुछ सवालों के जवाब मांगे। 10 सितंबर 2014 को राज्यपाल ने मुख्यमंत्री को लिखे पत्र कहा था कि अध्यादेश में 'तात्कालिकताÓ होना जरूरी शर्त होती है जब 1994 से अब तक आयोग बिना मंत्री के दर्जा के चल रहा है, तब अध्यादेश क्यों? इसके अलावा राज्यपाल ने कहा कि केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को सिर्फ लोकसेवक माना गया है और राज्य के दूसरे आयोग के अध्यक्षों को मंत्री का दर्जा नहीं है। इसके अलावा सांविधानिक और अदालती आदेशों का हवाला दिया था।
राजभवन के इस रुख के बाद समाजवादी सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष को राज्यमंत्री का दर्जा देने का बिल विधानमंडल के दोनों सदनों से पारित कराया। और उसे उत्तर प्रदेश अल्पसंख्यक आयोग (संशोधन) विधेयक, 2015 नाम देते हुए राजभवन को भेज दिया। राज्यपाल ने इस बिल पर अभी हस्ताक्षर नहीं किये हैं।
4-डॉ.राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान विधेयक, 2015 : इसमें संजय गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान (एसजीपीजीआइ) की तुलना में राज्यपाल का हस्तक्षेप कम किया गया है। एसजीपीजीआइ में निदेशक की नियुक्ति सहित अन्य अतिमहत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन राज्यपाल, संस्थान के विजिटर के रूप में करते हैं। लोहिया संस्थान में यह भूमिका समाप्त कर अध्यक्ष के रूप में मुख्य सचिव को सौंप दी गयी है। माना जा रहा है कि इसी कारण राज्यपाल ने यह विधेयक अब तक मंजूर नहीं किया है।
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5-उत्तर प्रदेश लोक आयुक्त तथा उप लोक आयुक्त (संशोधन) विधयेक, 2015: इसमें लोकायुक्त चयन समिति से हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीश की भूमिका खत्म करने और उनके स्थान पर नयी चयन समिति का प्रस्ताव है। मौजूदा समय में लोकायुक्त समिति में मुख्यमंत्री, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष सदस्य हैं। इस विधेयक के विचाराधीन रहते ही सुप्रीम कोर्ट ने लोकायुक्त की नियुक्ति कर दी है।
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6-आइआइएमटी विश्वविद्यालय, मेरठ, उप्र विधेयक, 2016 : इस विधेयक के कुछ प्रावधानों से राज्यपाल सहमत नहीं है। विधेयक में विश्वविद्यालय कर्मचारियों की सेवा शर्तों को लेकर उन्हें आपत्ति है। विधेयक की धारा-32 में प्रावधान है कि विश्वविद्यालय और उसमें मौलिक रूप से नियुक्त किसी कर्मचारी के बीच हुआ विवाद कुलपति को संदर्भित किया जाएगा। कुलपति विवाद के संदर्भित होने से तीन महीने के अंदर कर्मचारी को अवसर देने के बाद विवाद का निपटारा करेगा। कुलपति के आदेश से व्यथित कर्मचारी कुलाधिपति को अपील कर सकता है। ऐसे मामले में कुलाधिपति का निर्णय अंतिम होगा जिसके खिलाफ किसी न्यायालय में कोई वाद नहीं दाखिल किया जाएगा। कर्मचारियों को अदालत जाने के अधिकार से वंचित करने के प्रावधान से राज्यपाल असहमत हैं। विधेयक में कहा गया है कि प्रायोजक निकाय विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मानकों व शर्तों को पूरा करेगा। लेकिन विधेयक के कई प्रावधान यूजीसी की मंशा के विपरीत हैं जिनसे राज्यपाल संतुष्ट नहीं हैं।
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