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-मुलायम सिंह की सोच और दूरदर्शिता से तालमेल नहीं बैठा पा रही पार्टी और सरकार, जनता के भावों को भुनाने का सूत्र सफल
-सार्वजनिक मंच से सरकार के मुखिया को तीखी नसीहत अंदर-बाहर के विरोध को कुंद करने की सफल रणनीति साबित हो रही फटकार
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लखनऊ : समाजवादी पार्टी को मुलायम सिंह यादव ने अपने बौद्धिक कौशल, जमीनी संपर्क और राजनीतिक पटुता से सींचा वह खुद के द्वंद से जूझ रही है। चुनावी पैमाने पर समाजवादी पार्टी को जनता ने बारी-बारी जो तवच्जो और नजरंदाजी दिखाई उसे लेकर पार्टी के मुखिया का चिंतित होना भी लाजमी है। एक तरफ बहुमत की सौगात दूसरी ओर लोक सभा चुनावों में काफी हद तक जनता के तिरस्कार ने खुद मुलायम सिंह को आत्मलोचन के लिए मजबूर कर दिया। पार्टी और सरकार की कार्यप्रणाली में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया। लिहाजा मुलायम ने खुद डगमगाती नाव को किनारे सुरक्षित रखने को चप्पू चलाना शुरू किया। सार्वजनिक मंच से लगातार अपने पुत्र और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को तीखी नसीहत इसी का परिणाम है। जाहिर है, पड़ोसी लानत मलानत भेजें और कठघरे में खड़ा करें इससे पहले खुद ही अपनों पर हमलावर होना राजनीतिक कुशलता का बेहद सूक्ष्म सूत्र है। इन दिनों मुलायम यही कर रहे हैं। यह अंदर-बाहर के गैरों से बचाव की तकनीक और जनता का भावात्मक वेग अपने पक्ष में कर लेने का हुनर भी है।
फटकार की ताजा घटना छोटे लोहिया जनेश्वर मिश्र की जयंती के बहाने देखने सुनने को मिली है। यह हकीकत से परे नहीं कि आज समाजवादी पार्टी कैडर के क्राइसिस से जूझ रही है। खुद मुलायम सिंह के सहगामी रहे च्यादातर समाजवादी चिंतक अब इस दुनिया में नहीं रहे हैं, जो नई पौध तैयार हुई है उनमें समाजवादी साहित्य और सोच पूरी तरह पैठ नहीं कर पाई है। इस खालीपन का वर्तमान और भविष्य मुलायम सहित पार्टी वरिष्ठ पदाधिकारियों तक है। यही वजह है कि स्थापना दिवस हो या किसी दिवंगत नेता की पुण्यतिथि-जयंती हो समाजवादी साहित्य में रचने बसने का आहवान अनिवार्य रूप से किया जाता है। इसके बावजूद वो संस्कृति समाजवादी पार्टी में पनप नहीं पा रही है। नतीजा यह है कि सरकार में शामिल लोगों पर जमीन पर कब्जेदारी, दबंगई, येन केन प्रकारेण धन उगाही के मसले पार्टी की छवि को तार तार करते रहते हैं। ऐसा नहीं कि कोई राजनीतिक दल असल स्वरूप में धन संग्रह का निग्रही होता है। बावजूद इसके मुलायम सिंह इस प्रवृत्ति की अति के परिणाम शायद च्यादा साफ देख पा रहे हैं। सार्वजनिक मंचों से मुख्यमंत्री अखिलेश की फजीहत सिर्फ भावावेग की उपज भी नहीं मानी जा सकती। जाहिर है मुलायम राजनीति के अखड़े में उन कच्चे पहलवानों की तरह नहीं हैं जो झटके में दांव खा जाएं। उनकी राजनीतिक कुशलता का लोहा अनेक बार साबित हुआ है। इस वक्त कहीं न कहीं वह बेबसी का शिकार जरूर हैं जिसकी वजह से उन्हें अस्तित्व के संकट वाला हाथ पांव मारना पड़ रहा है। पार्टी में उनकी वैचारिक समानता वाले समाजवादी चिंतकों का अकाल सा है, नई पीढ़ी पूरी तरह उनके अनुशासन में ढल नहीं पा रही है। ऐसे में वह सबसे सस्ता और शायद च्यादा लंबा न चल पाने वाला फार्मूला अख्तियार किया हुआ है। संभवत: इस सोच के साथ कि मेरी नजरों के सामने कम से कम पार्टी न्यूनतम गिरावट को न प्राप्त होने पाए।
शुक्रवार को उन्होंने मुख्यमंत्री को फटकार के साथ पार्टी के लिए दीर्घकालिक रूपरेखा सी हस्तांतरित की। उन्होंने उलाहने के स्वर में कहा कि निर्देश के बावजूद प्रशिक्षण शिविर नहीं लग रहे हैं। स्पष्ट है मुलायम पार्टी की बुनियाद कैडर से मजबूत करने को उद्यत हैं। उन्होंने कहा कि कार्यकर्ताओं से मंत्री और मुख्यमंत्री से मंत्री का मिल पाना दूभर हो चुका है। आइएएस अफसरों पर मुख्यमंत्री के नरम रुख को लेकर भी मुलायम ने एतराज जताया। पार्टी नेताओं पर तंज कसते हुए मुलायम ने कहा कि पैसा कमाने के लिए व्यापार करिए, अवैध कब्जेदारी नहीं। इन चंद हिदायतों के पैमाने पर पूरी मंशा और वस्तुस्थिति को परखें तो साफ है कि सपा मुखिया को बखूबी पता है कि पिछले चार सालों में विकास के दावों पर अराजकता कितनी भारी पड़ी है। कहीं न कहीं उनका इशारा इस ओर भी है कि अंदरखाने जो भी मतभेद हों, कृपा करके उसे जनता के बीच पार्टी से मोहभंग का दृष्टिकोण न बनने दें। बातें जो अब तक दबी सी है वह है पार्टी में महिलाओं का प्रतिनिधित्व। देश के पांच राच्यों में महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों में सरकार की कमान है। समाजवादी पार्टी में महिला समानता के मुद्दे पर सामंती प्रभाव दिखता है। असलियत यह भी है कि पार्टी फिलवक्त उन शोलों को नहीं भड़काना चाहती जो अखिलेश की नुमाइंदगी से उपजा और दबा भी। विभिन्न प्रकोष्ठों में महिलाओं को अहम पद देना और बात, सरकार का प्रतिनिधित्व सौंपने की मंशा जाहिर करने का मतलब पारिवारिक संतुलन भी बिगडऩे का खतरा है। खैर, सपा मुखिया के बोल दो कारणों पर इशारा करने को पर्याप्त हैं, पहला-परंपरा का आधुनिकता में तारतम्य न बैठ पाने की अकुलाहट। दूसरे सरकार की बेहतर छवि को जनता में बचाए रखने का वैकल्पिक साधन।
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