मुलायम के अहम फैसले
1.अयोध्या में फायरिंग: -1989 में मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने। वीपी सिंह की सरकार गिरने पर चंद्रशेखर की जनता दल (समाजवादी) के समर्थन से सत्ता बनाये रखी। उनके सीएम रहते ही 1990 में कार सेवकों पर अयोध्या में गोली चली। बाद में मुलायम ने कहा-फैसला कठिन था। उनकी मुस्लिम परस्त छवि बनी। विरोधियों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहा।
2-नया दल: 1992 में मुलायम सिंह ने जनता दल से अलग दल बनाया। 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को बहुमत दिलाने के पहले पहले वह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रही। केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे। देश की राजनीति में बेहद अहम रहे।
3-शहीद का पार्थिव शरीर पर फैसला: रक्षामंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने शहीदों का पार्थिव शरीर उनके घर भेजने का फैसला लिया। अहेतुक राशि में बढ़ोत्तरी का निर्णय लिया। इससे पहले सिर्फ कैप, वर्दी, बैज भेजे जाते थे। जिस पर अब तक अमल हो रहा है।
4-न्यूक्लियर डील में समर्थन: मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार 2008 में अमरीका के साथ परमाणु करार को लेकर संकट में आयी तब मुलायम ने बाहर से समर्थन देकर सरकार बचाई थी।
5-अखिलेश को सीएम का फैसला: 2012 में 403 में से 226 सीटें जीतकर मुलायम ने आलोचकों का जवाब दिया। खुद सीएम बनने के स्थान पर बेटे अखिलेश यादव को ओहदा सौंपा। सपा की राजनीति के भविष्य को नई दिशा देने की पहल की।
6-जनता परिवार का अध्यक्ष: 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिखरे जनता परिवार को एकजुट करने प्रयास हुआ। मुलायम को अध्यक्ष चुन लिया गया। मगर बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मुलायम की ओर से रामगोपाल ने इस एकजुटता के बिखरने का ऐलान किया।
देस, प्रदेश की राजनीति में 'धूमकेतु' रहे मुलायम सिंह यादव की लोकसभा-2019 में कोई भूमिका नहीं होगी? वह मैनपुरी से सिर्फ एक प्रत्याशी होंगे? सपा-बसपा गठबंधन, कोलकाता में विपक्ष की जुटान और उसमें भाजपा का प्रभाव 'एक्सपायरी दवा' के अंदाज में खत्म होने की घोषणा में उनकी जाहिरा भूमिका न होने से ये सवाल उठा है। यह भी कहा जा रहा है कि 'मुल्ला-मुलायम' की तंजिया उपमा पर कभी 'उफ' न करने वाले मुलायम सिंह के बगैर क्या 19 फीसद वोटों वाली आबादी गठबंधन के पाले में एकजुट हो सकेगी? राजनीति की अपनी भाषा व समीकरण होते हैं, पर इतना तय है कि इस बार के आम चुनाव में विपक्ष, कई बार अपने दल को चौंकाने वाले फैसले लेते मुलायम सिंह दिखायी नहीं देंगे।
80 के दशक के बाद कांग्रेस को चुनौती देकर जमीन पर पांव जमाने वालों में किसान नेता चरण सिंह, वीपी सिंह (विश्वनाथ प्रताप सिंह), चन्द्रशेखर, राजनारायण, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कांशीराम और मुलायम सिंह यादव का शुमार होता है। इनमें से सिर्फ मुलायम सिंह यादव ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपने दल को अपनी रणनीति से यूपी में मकबूलियत हासिल की। यहां तक कि मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन गये। उनके राजनीतिक दांव-पेंच से केद्रीय राजनीति में हलचल मच रही। जब भी भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की सुगबुगाहट भी हुयी, मुलायम सिंह यादव उसके केन्द्र में रहे। यहां तक की 2014 के लोकसभा चुनाव में गैर भाजपा दलों की करारी पराजय के बाद 2015 में जनता परिवार को एकजुट करने की पहल हुई, तब मुलायम सिंह यादव को ही 21 दलों का अध्यक्ष चुना गया था। अब सिर्फ तीन साल बाद पहले उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में मुलायम की जाहिरा भूमिका नही्ं दिखी। और 19 जनवरी को कोलकाता में जब विपक्षी दलों ने भाजपा को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया, तब मुलायम सिंह यादव की उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं थी। सवाल ये है कि क्या मुलायम सिंह यादव अब देश की राजनीति में हासिये पर चले गये हैं। वह विपक्ष की रणनीति में शामिल नहीं हुए तो क्या संभावना बनने पर गैरकांग्रेसी, गैर भाजपा दल उनका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार होगा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव चरखा दांव के महारथी रहे हैं। अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी है कि राजनीति में उनका प्रभाव कम हो रहा है। वह अपने बूते उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री बने। रक्षा मंत्री बनें। बेटे को मुख्यमंत्री बनाया और गांव-कस्बों की राजनीति करने वालों को सांसद, मंत्री विधायक बना दिया है। ऐसे में अभी थोड़े इंतजार की जरूरत है।
1.अयोध्या में फायरिंग: -1989 में मुलायम सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने। वीपी सिंह की सरकार गिरने पर चंद्रशेखर की जनता दल (समाजवादी) के समर्थन से सत्ता बनाये रखी। उनके सीएम रहते ही 1990 में कार सेवकों पर अयोध्या में गोली चली। बाद में मुलायम ने कहा-फैसला कठिन था। उनकी मुस्लिम परस्त छवि बनी। विरोधियों ने उन्हें 'मुल्ला मुलायम' कहा।
2-नया दल: 1992 में मुलायम सिंह ने जनता दल से अलग दल बनाया। 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा को बहुमत दिलाने के पहले पहले वह तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रही। केंद्रीय रक्षा मंत्री रहे। देश की राजनीति में बेहद अहम रहे।
3-शहीद का पार्थिव शरीर पर फैसला: रक्षामंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव ने शहीदों का पार्थिव शरीर उनके घर भेजने का फैसला लिया। अहेतुक राशि में बढ़ोत्तरी का निर्णय लिया। इससे पहले सिर्फ कैप, वर्दी, बैज भेजे जाते थे। जिस पर अब तक अमल हो रहा है।
4-न्यूक्लियर डील में समर्थन: मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए की सरकार 2008 में अमरीका के साथ परमाणु करार को लेकर संकट में आयी तब मुलायम ने बाहर से समर्थन देकर सरकार बचाई थी।
5-अखिलेश को सीएम का फैसला: 2012 में 403 में से 226 सीटें जीतकर मुलायम ने आलोचकों का जवाब दिया। खुद सीएम बनने के स्थान पर बेटे अखिलेश यादव को ओहदा सौंपा। सपा की राजनीति के भविष्य को नई दिशा देने की पहल की।
6-जनता परिवार का अध्यक्ष: 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिखरे जनता परिवार को एकजुट करने प्रयास हुआ। मुलायम को अध्यक्ष चुन लिया गया। मगर बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मुलायम की ओर से रामगोपाल ने इस एकजुटता के बिखरने का ऐलान किया।
देस, प्रदेश की राजनीति में 'धूमकेतु' रहे मुलायम सिंह यादव की लोकसभा-2019 में कोई भूमिका नहीं होगी? वह मैनपुरी से सिर्फ एक प्रत्याशी होंगे? सपा-बसपा गठबंधन, कोलकाता में विपक्ष की जुटान और उसमें भाजपा का प्रभाव 'एक्सपायरी दवा' के अंदाज में खत्म होने की घोषणा में उनकी जाहिरा भूमिका न होने से ये सवाल उठा है। यह भी कहा जा रहा है कि 'मुल्ला-मुलायम' की तंजिया उपमा पर कभी 'उफ' न करने वाले मुलायम सिंह के बगैर क्या 19 फीसद वोटों वाली आबादी गठबंधन के पाले में एकजुट हो सकेगी? राजनीति की अपनी भाषा व समीकरण होते हैं, पर इतना तय है कि इस बार के आम चुनाव में विपक्ष, कई बार अपने दल को चौंकाने वाले फैसले लेते मुलायम सिंह दिखायी नहीं देंगे।
80 के दशक के बाद कांग्रेस को चुनौती देकर जमीन पर पांव जमाने वालों में किसान नेता चरण सिंह, वीपी सिंह (विश्वनाथ प्रताप सिंह), चन्द्रशेखर, राजनारायण, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, कांशीराम और मुलायम सिंह यादव का शुमार होता है। इनमें से सिर्फ मुलायम सिंह यादव ऐसे नेता हैं जिन्होंने अपने दल को अपनी रणनीति से यूपी में मकबूलियत हासिल की। यहां तक कि मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन गये। उनके राजनीतिक दांव-पेंच से केद्रीय राजनीति में हलचल मच रही। जब भी भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की सुगबुगाहट भी हुयी, मुलायम सिंह यादव उसके केन्द्र में रहे। यहां तक की 2014 के लोकसभा चुनाव में गैर भाजपा दलों की करारी पराजय के बाद 2015 में जनता परिवार को एकजुट करने की पहल हुई, तब मुलायम सिंह यादव को ही 21 दलों का अध्यक्ष चुना गया था। अब सिर्फ तीन साल बाद पहले उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन में मुलायम की जाहिरा भूमिका नही्ं दिखी। और 19 जनवरी को कोलकाता में जब विपक्षी दलों ने भाजपा को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया, तब मुलायम सिंह यादव की उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं थी। सवाल ये है कि क्या मुलायम सिंह यादव अब देश की राजनीति में हासिये पर चले गये हैं। वह विपक्ष की रणनीति में शामिल नहीं हुए तो क्या संभावना बनने पर गैरकांग्रेसी, गैर भाजपा दल उनका नेतृत्व स्वीकार करने को तैयार होगा। राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि मुलायम सिंह यादव चरखा दांव के महारथी रहे हैं। अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी है कि राजनीति में उनका प्रभाव कम हो रहा है। वह अपने बूते उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री बने। रक्षा मंत्री बनें। बेटे को मुख्यमंत्री बनाया और गांव-कस्बों की राजनीति करने वालों को सांसद, मंत्री विधायक बना दिया है। ऐसे में अभी थोड़े इंतजार की जरूरत है।
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